विद्यापति की पदावली के काव्य-सौन्दर्य पर विचार कीजिए।

प्रश्न-3 विद्यापति की पदावली के काव्य-सौन्दर्य पर विचार कीजिए।
उत्तर
रूप-सौंदर्य चित्रण :

विद्यापति की पदावली का सौंदर्य वर्णन

विद्यापति की पदावली ने केवल श्रंगार रस से युक्त है बल्कि भाषा पोस्टर और अलंकार आदि से भी अभिव्यंजित है। आइए इसका 11 का वर्णन करते हैं।

श्रृंगार वर्णन
'पदावली' में यद्यपि शृंगार के अतिरिक्त शान्त, वीर, रौद्र, एवं अद्भुत रसों का भी समावेश हुआ है, तथापि उसका प्रधान रस है शृंगार। शृंगार-वर्णन में ही विद्यापति की काव्य-प्रतिभा को चरमोत्कर्ष प्राप्त हुआ है। उनके शृंगारपरक पदों में उनके भावलोक की समस्त विशेषताओं, जैसे भावों का सम्यक् विस्तार, मनोवैज्ञानिक निरीक्षण की सूक्ष्मता और अनुभूति की तीव्रता आदि के दर्शन होते हैं। विभाव, अनुभाव और संचारी के सम्यक् निरूपण के द्वारा कवि ने भावपक्ष को प्रभावोत्पादक सजीव और सशक्त बना दिया है। आइए पहले विद्यापति के संयोग शृंगार वर्णन पर विचार करें।
श्रृंगार के तीन तत्त्व माने जाते हैं  1) काम, 2) सौंदर्य, 3) प्रेम । 
काम एक ऐसा मनोवेग है जो मैथुन से संबंधित है। स्त्री-पुरुष का मैथुनजन्य आनंद काम कहलाता है। श्रृंगार का काम भाव जिसे काव्यशास्त्रीयोंने 'रति' स्थायी भाव कहा है। रति भाव पूर्णरूप से सुंदरता पर आधारित होता है। सौंदर्य आकृष्ट करने की शक्ति का नाम है। किसी विशेष व्यक्ति-वस्तु की आकर्षण शक्ति को उसका सौंदर्य कहा जा सकता है।

सुंदरता के दो आयाम होते हैं- 
1) द्रष्टा की ग्रहण शक्ति, 
2) वस्तु / शक्ति की आकर्षण शक्ति। दोनों का
सामंजस्य प्रेम का कारण है।

काम का परिष्कृत रूप प्रेम है। प्रेम के दो रूप है 1) व्यापक, 2) संकुचित ।

व्यापक अर्थ में प्रेम के रूप है- 1) छोटों के प्रति प्रेम (वत्सलता ) 2) बराबर वालों के प्रति प्रेम ( अनुराग ) 3) बड़ों के प्रति प्रेम (श्रद्धा)

संकुचित अर्थ में प्रेम भिन्न लिंगी व्यक्तियों में आपसी आकर्षण, प्रणयजन्य व्यापार है। इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि सुंदरता चेतना का उज्वल वरदान है। सौंदर्य ही मानव जीवन का चरमोत्कर्ष है। सौंदर्यानुभूति की अभिव्यक्ति कला है। सौंदर्य प्रेम का मूल प्रेरक स्रोत है। विद्यापति कलाकार अर्थात् कवि है। सौंदर्यानुभूति को कविता के माध्यम से व्यक्त किया।

विद्यापति श्रृंगारी कवि होने के कारण प्रेम के मूल प्रेरक सौंदर्य का पूर्ण तथा अद्भुत निरूपण किया। सुंदरता के दो आधार है - 1) बाहरी सुंदरता 2) आंतरिक सुंदरता विद्यापति में दोनों रूप मिलते है। विद्यापति ने देह और मन दोनों की सुंदरता का निपुणता से वर्णन किया है।

1) बाहा सुंदरता :

बाह्य सुंदरता के अंतर्गत आकार, प्रकार, वेशभूषा, वर्ण, कद-काठी आते हैं। नख-शिख वर्णन. चेष्टाओं का वर्णन. वेश-भूषा, हाव-भाव वर्णन का बाह्य सौंदर्य चित्रण में समावेश होता है।

विद्यापति के काव्य का आधार प्रेम है। प्रेम का स्रोत सौंदर्य है और उसका आश्रय यौवन है। शारीरिक सौंदर्य का आधार प्रतिमान रूप है। मित्रों इसलिए सर्वप्रथम हम रूप की चर्चा करेंगे।

(क) रूप-सौंदर्य :

विद्यापति ने अपने पदों में रूप-सौंदर्य के विविध चित्र मनोहारी ढंग से प्रस्तुत किए है। रूप-सौंदर्य में केवल स्त्री (राधा) के रूप का ही वर्णन नहीं किया तो श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी को भी प्रस्तुत किया है।

विद्यापति ने राधा को अपरूप, अपूर्व, अभिरामा कहा है। विद्यापति राधा के रूप के आगे मौन हो जाते है। यहीं मौन राधा की अपूर्व सुंदरता को प्रकट करता है। 'कि आरे!' 'की कहब' जैसे सार्वनामिक शब्दों की योजना कवि करता है। विद्यापति की राधा पृथ्वी की सर्वोत्तम सुंदरी है। विधाता ने कठिन परिश्रम कर राधा को गढ़ा है। कवि के शब्दों में

कतेक जतन बिहि आनि समारल खिति तात लावनि सार

रूप सौंदर्य का अंकन करते समय काव्यशास्त्र की परंपरा से प्राप्त उपमानों का प्रयोग विद्यापति ने बेहिचक किया है। जैसे चंद्रमा, कमल, हरित, कोकिला, चकोर, कीर (तोता), गजराज (हाथी), कनक-कदली (स्वर्गवेल), बिम्बाफल, दाडिम, खंजन प्रतिनिधित्व करते है। मुख, शरीर की गंध, नेत्र, आवाज, स्वर्णिम आभा, शरीर का रंग, उरोज, दाँत आदि। भृकुटि को देखकर भौंरा तथा नाक को देखकर तोता लजा गया है।

भौंह भ्रमरण नासापुट सुंदर से देखी कीर लजाई ।

शारीरिक सौंदर्य की पराकाष्ठा है कि शरीर के अंगों से उपमान लज्जित होकर धुप गए हैं

कबरी-मय चामरि गिरि-कंदर मुख भय चाँद अकासे। हरिन नयन-भय, सर भय कोकिल गतिभय गज वनवासे ।

राधा का मुख मनोहर और अधर लाल रंग के है। देखकर ऐसा लगता है मानों कमल के साथ लाल रंग का मधुर फूल खिला हो । नेत्र भ्रमर की आकृति के है। झुकी हुई आँखें इस तरह लगती है कि मधु के कारण मदमत्त हुआ भ्रमर उड़ने में असमर्थ है। भौएँ तो कामदेव के धनुष की तरह लगती है। शब्दों द्वारा उसका वर्णन करता संभव नहीं है। ब्रह्माजीने न जाने कितने यत्न से रूप की रचना की है। रूप वर्णन का अगला प्रकार नखशिख वर्णन है।

(ख) नखशिख वर्णन :

रीतिकालिन कवियों ने तथा पद्मावत में जायजी ने रूप-सौंदर्य वर्णन करने के लिए 'नख-शिख वर्णन' की परंपरा को आगे बढाया जो संस्कृत काव्यशास्त्र से हिन्दी में आई है। यह रूप वर्णन ऊपरी तथा मात्र शारीरिक है। विद्यापति की विशेषता है उन्होंने नायिका के अंग-उपांगों का क्रमिक वर्णन प्रस्तुत नहीं किया। वे मनोविज्ञान के ज्ञाता होने से नारी-सौंदर्य की पराकाष्ठा से यह वर्णन करते है।

पीन पयोधर दूबरि गता।
मेरू उपजल कनक लता।

नारी के रूप-स्वरूप के मनोहारी दर्शन पयोधर ही होते हैं। विद्यापति ने उरोजों की प्रधान रूप से चर्चा की है। पीन पयोधर सुमेरू पर्वत मात्र नहीं है। बिना नाल के खिले हुए कमल है, ये मुरझा न जाए इसलिए मणियों का हार सुरसरि गंगा की धारा बनकर उन्हें सींच रहा है। स्वर्ण कटोरा, श्रीफल के बाद विद्यापति इन्हें 'कनक-संभु' कह देते है।

काम-कम्बुभरि, कनक, संभु परि
ढाराती सुरसरि धारा ।

मथुरा जाते हुए कृष्ण भी “कुच जुग संभु को स्पर्श कर" पुनः आने का वचन राधा को देते है।

विद्यापति ने रूप सौंदर्य के दो तरह से चित्र प्रस्तुत किए हैं। वय:संधि वर्णन और सद्यस्नाता वर्णन। इन दोनों में उनकी मौलिकता दिखाई देती है। वयःसंधि वर्णन मनोवैज्ञानिक है। बचपना और यौवन का मिलन यहाँ है। आँखे • विशाल होकर कानों की ओर बढ़ने लगी है। बोलते समय मंद-मंद हँसती है। दर्पण लेकर अपने मुँह को निहारती है, श्रृंगार करती है। उरोजो को एकांत में निहारती है। कमर पतली हो गई है। आँचल से हृदय स्थल को ढाँकती है।

अब सब खत रह आँचर हात । लाने सखिगत न पुछात बात ।

सद्यस्नाता वर्णन

राधा के केशों से जल-धारा गिर रही है, देखकर ऐसा लगता है मुख रूपी चाँद के भय से केश रूपी अंधेरा आँसू बहा रहा है। दोनों स्तन सुंदर चक्रवाक है जो अपने कुल में समाने के लिए उड़ने को उद्युक्त हो रहे है। इसलिए नायिका ने उन्हें बाहु-पाश में बाँध लिया है। वस्त्र शरीर से चिपक गए हैं छूटने के भय से रो रहे है। ऐसी रूपवती नायिका कृष्ण को प्रिय है। कामदेव के पाँच बाण है- सम्मोहन, उन्माद, शोषण, तापन, स्तम्भक इनका सुंदर प्रयोग विद्यापति ने किया है।

कामिनी करए सनाने । हेरतहि हृदय हनए पंचबाने ।

(ग) हाव-भाव वर्णन :

विद्यापति ने राधा का सौंदर्य सचेष्ट, हाव-भाव युक्त किया है। गजगामिनी कामिनी पलट कर हँस देती है तो रसिक का हृदय बिंध जाता है।

गेलि कामिनि गजक गमिनि बिहँसि पलरि निहारि।
जोरि भुज जुग मोरि बेढल तताहि बदन सुछन्द ॥

राधा की सभी भाव-भंगिमा नायक कृष्ण को आकुल करनेवाली है। वह कभी बाल बाँधती है तो कभी खोलती है। कभी अपने शरीर को ढंकती हैं तो कभी अनावृत्त करती है। लज्जा, शर्म से कंपन स्वाभाविक है।

आँचल लेइ बदन पर झाँप |
थिर नहिं होअइ थर-थर काँप

विद्यापति की दृष्टि में 'रूप-स्वरूप मोयं कहइत असंभव है परंतु वह इतना आकर्षक है कि उसके पिछे आँखे लगी ही रहती है।

विद्यापति ने केवल नायिका के रूप-सौंदर्य को प्रस्तुत नहीं किया श्रीकृष्ण (नायक) का सौंदर्य चित्रण किया है। पुरुष सौंदर्य को देखकर नारी उस ओर आकृष्ट हो जाती है फिर लजा जाती है। रूप के जादू ने उसके मन में रति भाव को जगा दिया। शरीर से पसीना छूटता है, पुलक से कंचुकी फट जाती है, हाथ काँपने लगते है और मुँह से शब्द नहीं निकलते । श्रीकृष्ण का रूप ऐसा मनोहारी है ।

2) आंतरिक सौंदर्य :

शरीर सौंदर्य बाह्य सौंदर्य होता है जो कालसापेक्ष अर्थात् क्षणजीवि है। इतके विपरित आंतरिक सौंदर्य मानसिक होता है जो हमेशा बना रहता है, नष्ट नहीं होता। इस सौंदर्य का अंकन विद्यापति ने कुशलतापूर्वक किया है।

(क) अलौकिक सौंदर्य :

विद्यापति ने सहज-स्वाभाविक शारीरिक सौंदर्य का चित्रण करने के साथ-साथ सूक्ष्म और मानसिक सौंदर्य का अंकन किया है। यह सौंदर्य साधारण होकर भी असाधारण हैं, चिर परिचित होकर भी चिर नूतन है। इसके लिए उन्होंने 'अपरुप' नाम दिया। विद्यापति अपनी नायिका के मुख की उपमा चंद्रमा के सार तत्त्व से करते हैं तथा नायिका के शरीर को नूतन शाम मेघ के पीछे चमकती दामिनि-सी बताते है।

चाँद सार लए मुख चटना करू लोचन चकित चकोर । • नव जलधर तब संचर रे जनि बिजुरी रेह ।। इसीकारण विद्यापति को 'अप्सरा लोक के खनिज मधुर कवि' भी कहते है ।

ससन परस खसु अम्बर रे देखल धनि देह ।

(ख) लज्जा :

स्त्रियों का आभूषण लज्जा है। आ. रामचन्द्र शुक्ल ने चिंतामणि में लज्जा शीर्षक से निबन्ध लिखा है। लज्जा मतवाली सुंदरता का नूपुर है।

नील बसन तन धरलि सजनि गे
सिर लेल घोंघट सारि ।

लज्जा के कारण आँचल से अपने शरीर को ढाँकना, थर-थर काँपना, मुख नीचा करना, चेहरा आरक्त होना अनुभाव है, आदि का चित्रण मनावैज्ञानिक ढंग से करने के कारण विद्यापति की पदावली में सहज सौंदर्य का आगमन हुआ है।

प्राकृतिक सौंदर्य :

प्रकृति की सुंदरता हमारी मानसिक थकान को मिटाकर सुख प्रदान करती है। भारतीय कवियों का प्रिय वर्णन 'वसंतोत्सव' का रहा है। संस्कृत परिपाटी के अनुसार विद्यापतिने पदावली में 'वसंत' का वर्णन किया है। जो

रतिभाव, श्रृंगार रस को पुष्ट करनेवाला उद्दिपन विभाव है।

आएलु रितुपति राज वसंत
छाओल अतिकुल माधवि पंथ ॥
नब वृंदावन नब नब तरुगन, नब-नब विपसित फूल।

विद्यापतिने मानवीकरण द्वारा प्रकृति के उपमानों का सुंदर प्रयोग कर प्रकृति सौंदर्य में प्राण फूँक दिए है।

अभिव्यंजना सौंदर्य :

सौंदर्य का वर्णन करनेवाले शब्द भाषा भी सुंदर होना आवश्यक है। अन्यथा प्रभाव फीका हो जाएगा। भावानुकूल भाषा का प्रयोग विद्यापति की मुख्य विशेषता है। माधुर्य, प्रसाद और ओज गुण युक्त पदावली का प्रयोग देखते ही बनता है। हिन्दी कवियों में सुमित्रानंदन पंत इस बात के लिए प्रसिद्ध है। शब्द चयन, नाद-सौंदर्य, लय और संगीत के ज्ञान से यह चमत्कार उत्पन्न होता है।

खने खन नयन कोन अनुसरई।
बाजत द्रिगि द्रिगि धौद्रिम द्रिमिया ।
नरति कलावति माति श्याम संग ।

विद्यापति का सौंदर्य चित्रण स्वतंत्रता स्पष्टता ऐंद्रिकता को लिए हुए है। जो मानस में मनमथ को जगाता है। यही पहचान लोकप्रियता कवि-रचनाकार की आज भी है। विद्यापति सौंदर्य के अकूट अम्लान चितेरे हैं।

भाषा सौंदर्य:

विद्यापति दरभंगा जिले के निवासी थे। यहाँ की भाषा मैथिली है। जो मागधी अपभ्रंश से विकसित है। उडिया, बांगला, असमिया मागधी से ही जन्मी है।

महाकवि विद्यापति बहुभाषाविद् थे। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश में लेखन पूर्ण अधिकार के साथ किया । विद्यापति संधिकालीन कवि होने से सभी भाषाओं के तत्त्व लोक में व्याप्त थे जिनका प्रभाव दिखाई देना असंभव नही था। श्री रामवृक्ष बेनापुरी लिखते है - "विद्यापति की भाषा की दुर्दशा भी खूब हुई है। बंगाली लोगों ने उसे ठेठ बांगला का रूप दे दिया है। मोरंग वालों ने उनकी भाषा पर मोरंग का रंग चढाया है। बाबू बृजनंदन सहाय ते उसे भोजपुरी की कलई से चमकाया है और आजकल के मैथिल उस पर आधुनिक मैथिली का रोगन चढ़ा रहे है । "

पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र की दृष्टि से विद्यापति हिन्दी के आदि कवि है।

लोकभाषा का प्रयोग :

विद्यापति मिथिला के निवासी थे और मैथिली उनकी घरेलू भाषा थी। अपनापन, अनौपचारिकता, प्रगाढता को सूचित करने के लिए उन्होंगे पदावली में मैथिली का ही प्रयोग किया। घरेलू भाषा को बोली कहा जाता है।

• उष्म व्यंजन श का 'दंत्य 'स' हो जाता है।

संभु भगन भए भेल ।

अंत:स्थ य और 'व' मैथिली में 'ए' ओ हो जाते है। हेर इत प्रति मोर हबल गे आन।

क्ष, ष, य, ण मैथिली में ख. ख. ज. न हो जाती है।
हरख सवे सोहाब।

संयुक्ताक्षर का प्रयोग न होकर स्वरभक्ति मैथिली का गुण है। कामिनि करए सनाने

क्रियाओं मे भूतकालिन क्रियाएँ लकारांत होती है - -

भेल, गेल, वेल, लेल, उबेगल, मिलावल आदि।

भाषा सौष्ठव :

किहु किहु उतपति अंकुर भेल ।

विद्यापति की पदावली का भाषा-सौष्ठव अत्यंत भावपूर्ण सरस तथा लालित्य लिए हुए है। एक ओर पदावली में लोकभाषा का माधुर्य है तो दूसरी ओर अवधी, भोजपुरी, बंगला के शब्द भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते है। इनकी यहाँ कामिनि शब्द का प्रयोग अर्थवत्ता लिए हुए है। जिसमें काम का निवास है वह कामिनि कहलाती है। कटाक्ष उसके बाण है। बाण से बिंध कर रसिक कामासक्त हो जाता है।

3) व्यंग्यार्थक शब्द योजना :

भाषा में प्रचलित शब्दों के तीन अर्थ होते है। वाच्यार्थ जिसे कोशिय या कोशगत अर्थ कहते हैं । यह अभिधेयार्थ है। दूसरा लक्षार्थ होता है जो लक्षणा पर आधृत है तो तिसरा अर्थ व्यंग्यार्थक है जो व्यंजना से प्रकट होता है। विद्यापति ने नोक-झोंक में वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ का मणिकांचन योग किया है।

कर धरू कस मोहे पारे,
देव में अपुख हारे, कन्हैया

वाच्यार्थ है - मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पार लगाओ। व्यंजना में श्रृंगार है 'कर धर' का अर्थ है मुझे गले लगाओ। मेरे लिए अपूर्व उपहार है- वासना शमन जन्य आनंद ।

4) नादपरक शब्द योजना :

शब्दों के द्वारा भावानुकूल नादमयता निर्माण करना विद्यापति की भाषा की विशेषता है।

किंकिन किन-किन कंकन कन कन -
घन-घन नुपूर बाजे ।

जैसी पंक्तियों में यह नादमाधुर्य का गुण दिखाई देता है। यही अनुरणनात्मकता नाद कहलाता है। जो संगीतात्मकता का प्राणतत्त्व है। विद्यापति की पदावली का प्राणतत्त्व संगीत है। ये पद संगीत की अनुपम निर्झरणीयों के कल-कल नाद से प्रस्फुटित होते हैं। पदावली का प्रथम पद संगीतात्मकता लिए हुए है। अन्य पद का उदाहरण प्रस्तुत है,

नव वृंदावन नव-नव तरुगन नव-नव विकसित फूल,
नवल वसंत नवल मलयानिल मातल नव अलि कूल।

इसी संगीतात्मकता के कारण गेयता का अनायास आगमन हो जाता है। जैसे,

सुंदरि चललिहु पहु घरना।
चहुदिस सखि सब कर धना ।।
जैतहु लागु परम डर ना ।
जैसे ससि काँप राहु डर ना ।

इसमें 'ना' शब्द अनुनय, आग्रह और लज्जा को व्यक्त करता है।

5) बिंबात्मकता :

कवि गीत, संगीत के माध्यम से कविता को भावचित्र के रूप में प्रस्तुत करता है। यह एक शब्द चित्र है, जिससे प्रभावित होकर पाठक के मन में भात अमिट रूप से बस जाते हैं।

काक, भाख निज भाखह रे
पहु आवत मोरा,
खीर, खाँड भोजन देव रे
भरि कनक कटोरा । ***

कुच जुग चारू चकेवा, निय कुल मिलिअ आनि कोन देवा, ते संका भुजपासे - बाँधि धएल उडि जात अकासे ।

ग) लोकोक्ति-मुहावरों का प्रयोग :

डॉ. उमेश मिश्र ने विद्यापति की पदावली में 192 लोकोक्ति मुहावरों का चयन किया है। लोकोक्तियाँ और - मुहावरे अभिव्यंजना की प्रखरता को बढाते है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत है।

1) कुछ न आवै पथिक के पास (कुआ प्यासे के पास नहीं जाता।)
2) अवसर बहला रह पचताव (अवसर चूकने पर पछताना पड़ता है )
3) ढाकि रहय न अपजस नासि (अपयश ढँका नहीं रहता)
4) पर क वेदन बाँटि न लेइ (दूसरे की पीड़ा को नहीं लिया जा सकता)

 जनभाषा का प्रयोग :

विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के मत से विद्यापति की भाषा भाव के साथ-साथ चलती है। मेरे मत से जनभाषा प्रयोग होनेपर भी उसमें सुकुमारता, आलंकारिकता और भावात्मकता है। यह भाषा आम आदमी की अनुभूति को सशक्त ढंग से प्रस्तुत करती है। मेरे मत से विद्यापति लोकभाषा के सम्राट है।

इसीसे प्रभावित होकर गोस्वामी तुलसीदासजीने लोकभाषा अवधी में 'श्रीरामचरित मानस' की रचना कर अथाह यश संपादित किया।

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