नाथ-साहित्य की परम्परा में गोरखनाथ का महत्व बताइए।

प्रश्न- नाथ-साहित्य की परम्परा में गोरखनाथ का महत्व बताइए।

उत्तर
 गोरखनाथ : व्यक्तित्व एवं कृतित्व

नाथ संप्रदाय की मूलंभूत जानकारी प्राप्त करने के बाद हम नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक कवि गोरखनाथ तथा उनकी रचनाओं की जानकारी भी देना चाहेंगे। यह पहले बताया जा चुका है कि गोरखनाथ मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे। नाथों की शिष्य परंपरा में शिव को ही आदिनाथ कहा गया है। शिव के बाद मस्येंद्रनाथ का नाम लिया जाता है। इसके संबंध में एक जनश्रुति प्रचलित है। कहते हैं कि एक बार शिव जब इस ज्ञान का उपदेश पार्वती को दे रहे थे तो मत्स्य रूप धारण कर मत्स्येंद्रनाथ ने वह ज्ञान प्राप्त कर लिया था। बाद में उन्होंने यह ज्ञान गोरखनाथ को दे दिया। वास्तव में गोरखनाथ ने नाथ संप्रदाय को व्यवस्थित किया तथा उसे व्यापक रूप प्रदान किया। विद्वानों ने इन्हें शंकराचार्य के बाद दूसरा प्रभावशाली व्यक्ति माना है। वास्तव में भक्ति आंदोलन से पूर्व सबसे शक्तिशाली आंदोलन गोरखनाथ का योगमार्ग था।
गोरखनाथ के समय के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों ने इनका समय 9वीं शती का उत्तरार्ध माना है और कुछ ने 13वीं शती। वैसे अधिकांश विद्वान अनेक प्रमाणों के आधार पर इनका समय 9वीं शती का उत्तरार्ध ही मानते हैं। इनका व्यक्तित्व अपने समय में काफ़ी चर्चित था। भारत का कोई कोना ऐसा नहीं था जहाँ इनके बारे में कोई जनश्रुति प्रचलित न हो। कोई ऐसा मत या संप्रदाय नहीं था, जिससे इनका कोई न कोई संबंध न निकलता हो। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि गोरखनाथ पहले वज्रयानी साधक थे, बाद में वे शैव हो गए। कुछ इन्हें तांत्रिक शैव भी मानते हैं।

गोरखनाथ ने जो पंथ चलाया वह गोरखपंथ के नाम से जाना गया। इस पंथ के अधिकांश साधक ब्रह्मचारी थे। ये नारी को माया का रूप मान कर उससे दूर ही रहना चाहते थे।

गोरखनाथ एवं उनकी परंपरा के अन्य शिष्यों चर्पटनाथ, रभर्तृहरि, गोपीचंद्र, चौरंगीनाथ आदि द्वारा लिखी गई अनेक रचनाएँ मिलती है, जिनकी भाषा हिंदी है। इनमें से गोरखनाथ के नाम से लगभग 40 रचनाएँ मिलती है। किंतु इनकी प्रामाणिकता के विषय में संदेह है। डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने केवल 14 रचनाओं को इनके द्वारा रचित माना है, जिनमें सबदी, पद, नरवै बोध, आत्मबोध, मछीन्द्र-गोरख बोध, ज्ञान तिलक, पंचमात्रा आदि प्रमुख हैं। इन्होंने गोरखनाथ की पुस्तकों का एक संग्रह "गोरखबानी" के नाम से प्रकाशित कराया है। इस संकलन की रचनाओं में नाथ संप्रदाय की सभी प्रवृत्तियों का समावेश है।

गोरखनाथ के काव्य का प्रतिपाद्य

गोरखनाथ का काल सांप्रदायिक दृष्टि से बहुत अव्यवस्थित था। देश में मुसलमानों का आगमन हो चुका था। जो लोग वैदिक व्यवस्था का विरोध कर रहे थे, उनके सामने दो रास्ते थे। पहला, वे ब्राह्मण मत का विरोध सहते हुए भी हिंदू साधक बने रहें। दूसरा, वे मुसलमान हो जाएँ। लेकिन नाथपंथियों के आगमन से यह संप्रदाय हिंदुत्व की ओर खिंचता चला गया। भक्ति आंदोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आंदोलन गोरखनाथ का योगमार्ग था। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, गोरखनाथ ने हठयोग साधना पर बल दिया, जिसके अंतर्गत गुरु महिमा, योगपरक साधना, ब्रह्मानंद की स्थापना, नारी के प्रति दृष्टिकोण, शून्य की कल्पना, नाड़ी साधना, आदि इनके काव्य के प्रतिपाद्य विषय हैं।

अब हम इनकी एक-एक करके चर्चा करेंगे तथा इनसे संबंधित कुछ अंशों की "वाचन" खंड के अंतर्गत व्याख्या करेंगे।

गुरु महिमा

सिद्ध साहित्य के समान नाथ साहित्य में गुरु की महिमा का प्रतिपादन किया गया है। गोरखनाथ के अनुसार एकमात्र अवधूत ही गुरु हो सकता है। अवधूत वह होता है, जिसके प्रत्येक वाक्य में वेद का निवास होता है। उसका हर कदम तीर्थ होता है। उसकी दृष्टि में मोक्ष रहता है। जिसके एक हाथ में त्याग तथा दूसरे में भोग रहता है, फिर भी वह इन दोनों से दूर रहता है। गोरखनाथ के अनुसार गुरु ही समस्त श्रेयों का मूल है। एक स्थान पर गोरखनाथ कहते हैं

“आकाश मंडल में एक औंधे मुंह वाला कुँआ है, जिसमें अमृत भरा हुआ है। जिसने अच्छे

गुरु की शरण ली है, वही उसमें से अमृत पी सकता है। जिसने किसी अच्छे गुरु को प्राप्त

नहीं किया, वह प्यासा ही रह जाता है।"

योगपरक साधना

गोरखनाथ की रचनाओं में हठयोग की छाप अधिक दिखाई देती है। यौगिक प्रक्रिया को समझाते हुए ये कहते हैं कि "अन्न से बने मांस को वायु से बनी हड्डी पर ज्ञान और अमृत का बंध देकर वायु का भक्षण करना चाहिए। ऐसा करने से शरीर नष्ट नहीं होता क्योंकि मृत्यु (यम) का प्रभाव समाप्त हो जाता है।

इन्होंने हठयोग साधना को समझाने के लिए लोक जीवन से उदाहरण लिए। इसका प्रमुख उद्देश्य यह था कि साधारण जनता भी इस साधना प्रक्रिया को आसानी से समझ सके। एक उदाहरण देखिए।
"आकाशमंडल में गाय का दूध निकालकर सिद्धों ने उसे दही के समान जमा दिया। अर्थात् उस ज्ञान को उपनिषद आदि ग्रंथों में स्थिर कर दिया। पंडितों ने इसी दही को छानकर केवल छाछ ग्रहण किया। अर्थात वे शब्दों में ही उलझ गए। किंतु सिद्धों ने छाछ को छोड़कर मक्खन ही ग्रहण किया, अर्थात ज्ञान प्राप्त किया।"

इनके अनुसार हठयोग साधना तभी हो सकती है जब कठोर आसन पर बैठकर ध्यान किया जाए। रात-दिन ब्रह्म का स्मरण किया जाए। भोजन थोड़ा किया जाए और काम, क्रोध तथा अहंकार को दूर भगा दिया जाए।

ब्रह्मानंद की स्थापना

नाथ ने ब्रह्मानंद की स्थिति को हर स्थान पर व्याप्त माना है। आगे चलकर संतों ने इसी भाव को ग्रहण किया तथा परमात्मा में आत्मा को लीन माना। ब्रहम की स्थिति का वर्णन करते हुए एक स्थान पर गोरखनाथ ने जन जीवन से उदाहरण लेकर अत्यंत सरल शब्दों में अपना मत प्रकट किया है।

जिस प्रकार तिल में तेल व्याप्त है, वैसे ही अंजन में निरंजन जैसे तिल में से तेल निकाला. जाता है, वैसे ही मैंने (सिद्ध योगी) अंजन (माया) में से निरंजन (ब्रह्म) को प्राप्त किया है। इस तरह मैंने लगातार आध्यात्मिक आनंद प्राप्त किया है।

नारी के प्रति दृष्टिकोण

अधिकांश नाथ ब्रह्मचारी थे, अतः इनके लिए नारी का संग वर्जित था। इनके अनुसार नारी मात्र आकर्षण की वस्तु है, जिससे साधना में बाधा पैदा होती है। इसीलिए इन्होंने माया को छोड़कर दूर हो जाने की बात स्थान-स्थान पर कही है। गोरखनाथ एक स्थान पर कहते हैं कि जो स्वर्ण रूपी नारी का परित्याग कर देता है, वही संसार में निर्भय होकर योग सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है।

शून्य की कल्पना

आप पढ़ चुके हैं कि शून्य को सिद्धों ने काफी महत्व दिया था। नाथ संप्रदाय में भी इस शून्य तत्व को ग्रहण किया गया, परंतु इसे परम तत्व के रूप में ग्रहण किया गया। गोरखनाथ ने शून्य का संबंध शब्द या नादतत्व से जोड़ा। वास्तव में शिव और शक्ति की कल्पना नाद तथा बिंदु के रूप में, हठयोगी एवं तांत्रिक संप्रदायों में बहुत पहले से थी। इसमें नादतत्व या शब्द ब्रह्म को सारी सृष्टि का मूल कारण माना गया है। गोरखनाथ ने शून्य को नाद का प्रतीक मानकर उसे परम तत्व माना तथा उसे ही सब कुछ कहा। गोरखबानी में कुछ पंक्तियाँ ऐसी मिलती हैं, जिनमें शून्य से ऊपर सहजशून्य की कल्पना की गई है। उसमें यह बताया गया है कि शून्य में तो आना-जाना लगा रह सकता है, लेकिन जिस शून्य में जाकर चित्त स्थिर हो जाए, उसे ही सहज शून्य माना जाता है।

नाड़ी साधना

हठयोग में नाड़ी साधना को विशेष बल दिया गया। शरीर की 72 हज़ार नाड़ियों में से सिर्फ़ सुषुम्ना नाड़ी को ही शक्ति को धारण करने वाली माना गया। गोरखनाथ ने नाड़ी साधना, कुंडलिनी जागरण के विषय में स्थान-स्थान पर अपने विचार रखे हैं। इनके अनुसार इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना - इन तीनों नाड़ियों का संगम ब्रह्मरंध्र है जो मस्तिष्क के बीच में स्थित रहता है। ब्रह्मरंध्र द्वार है, जो बंद रहता है। साधना से ही इसे खोला जा सकता है। ब्रह्मरंध खुलते ही अमृतरस झरता है, जिससे योगी को अमरत्व की प्राप्ति होती है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि गोरखनाथ ने नाथ साहित्य परंपरा के अनुसार उन सभी विषयों का प्रतिपादन किया जो हठयोग साधना के लिए अनिवार्य थे। इनके साहित्य में मूल रूप से योगियों के लिए उपदेश दिए गए हैं, जिसमें नीतिपरक बातें, सामाजिक आचार-व्यवहार, साधना का मार्ग आदि विषयों का प्रमुख रूप से प्रतिपादन हुआ है। इन्होंने लौकिक विषयों से अपने मन को हटाकर अंतः साधना पर बल दिया, जिसमें प्राणसाधना का विस्तार से विवेचन किया। इन्होंने संसार से वैराग्य लेने का उपदेश दिया क्योंकि साधना मार्ग में संसार के आकर्षण बाधा उपस्थित करते हैं। इस प्रकार इन्होंने वैराग्य को साधना का प्रथम सोपान माना।

आइए, अब गोरखनाथ के कुछ प्रमुख काव्यांशों की चर्चा करें -

गोरखनाथ के काव्य का वाचन

गोरखनाथ के काव्य का प्रतिपाद्य विषय जान लेने के बाद यह आवश्यक हो जाता है कि उन प्रमुख विषयों को उनकी रचनाओं में देखा जाए। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, इस साहित्य का प्रतिपादन लौकिक भाषा में हुआ है, अतः लोक जीवन के लिए अनेक उदाहरण भी स्थान-स्थान पर दिखाई देते हैं।

यहाँ कुछ वाक्यांश दिए जा रहे हैं, जिनका पहले आपको वाचन करना है, फिर भावार्थ समझना है। उसके बाद शब्द प्रति शब्द अर्थ समझना है :

1) योगपरक बिंब का एक उदाहरण देखिए ।

"गगन मंडल मैं ऊँघा कूवा, तहाँ अमृत का बासा। सगुरा होइसो भरि भरि पीवै, निगुरा जाइ पियासा ॥"

भावार्थ

आकाश मंडल (शून्य) में एक औंधे मुंह वाला कुआँ है, जिसमें अमृत भरा हुआ है। जो अच्छे गुरु की शरण में है, वही उसमें से भर-भर कर अमृत पी सकता है। लेकिन अच्छे गुरु के अभाव में वह प्यासा ही रह जाता है।

शब्दार्थ :

गगन मंडल →आकाश मंडल (शून्य, ब्रहमरंध)
ऊँधा  →औघा लटका हुआ
कूवा  →कुआँ
बासा  →निवास 
सगुरा  →अच्छा गुरु
होई  →होना
सो  →वह
भरि भरि  →भर-भर कर
पीवै  →पीता है 
जाइ रह  →जाता है 
पियासा  →प्यासा

निगुरा बुरा गुरु

2) हठयोग साधना का एक उदाहरण देखिए, जिसमें लोक जीवन से उदाहरण लेकर उसे सरल तरीके से समझाया गया है

- "गिगिन मंडल में गाय बियाई, कागद दही जमाया।
छाछि छौंणि पिंडता पीवीं, सिंधा माषण षाया ॥"
(सबदी)

भावार्थ
गगन मंडल (शून्य) में अनुभूति के शिखर पर पहुंच कर सिद्धों ने गाय रूपी परमानुभूति प्राप्त की। उसी का दूध निकालकर उसे उपनिषद आदि ग्रंथों में दही के रूप में जमा दिया। पंडित दही को छानकर केवल छाछ ही ग्रहण कर पाए अर्थात वह शब्दों में ही फंसे रह गए, किंतु सिद्धों ने केवल मक्खन ही ग्रहण किया अर्थात शब्दों को छोड़कर ज्ञान को ग्रहण किया।

शब्दार्थ : 
गिगिन  →आकाश, गगन
पीवीं  →पीया
बियाई  →जन्म दिया
कागद  → कागज़
सिंधा  →सिद्ध योगी
माषण  →मक्खन
छाछि  → छाछ
छाणि  →छानकर
षाया  →खाया
पिंडता  →पंडित

3) यौगिक क्रिया का महत्व बताते हुए गोरखनाथ एक स्थान पर कहते हैं "

जैन का मास अनिल का हाड़, तत का बंद भषिवा बाई । बंदत गोरखनाथ पता होडबा चिरांई न पडै घटि न जमघट जाई ॥"

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