विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारिक? सतर्क विश्लेषण कीजिये।

प्रश्न 5 : विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारिक? सतर्क विश्लेषण कीजिये।

उत्तर :

हल करने का दृष्टिकोण:

• भूमिका

• विद्यापति के भक्त कवि होने के पक्ष में तर्क

• विद्यापति के श्रृंगारिक कवि होने के पक्ष में तर्क

विद्यापति की प्रसिद्धि का मूल आधार उनकी रचना पदावली है। पदावली में भक्ति विषयक पद भी हैं और श्रृंगार विषयक पद भी। संभवत: पदावली के आधार पर ही विद्वानों ने यह प्रश्न उठाया कि विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारिक?

जार्ज ग्रियर्सन, बाबू श्याम सुंदर दास, तथा बाबू ब्रजनंदन सहाय जैसे कुछ विद्वानों ने विद्यापति को भक्त कवि माना है। वहीं दूसरी ओर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बाबू राम सक्सेना, डॉक्टर राम कुमार वर्मा और बच्चन सिंह जैसे विद्वानों ने विद्यापति को श्रृंगारिक कवि कहा है।

विद्यापति का प्रतिपाद्य - भक्ति या श्रृंगार :

विद्यापति को भक्त कवि मानने के पीछे तर्क:

विद्यापति के पद श्रृंगारिक या अश्लील होते तो मंदिरों में क्यों गाए जाते? इनको सुनकर चैतन्य महाप्रभु जैसे भक्त मूर्छित क्यों होते? परवर्ती काल में कृष्णदास, गोविंददास जैसे कवियों ने विद्यापति को भक्त कवि के रूप में ही महत्त्व दिया है। यदि राधा-कृष्ण के श्रृंगार का विस्तृत वर्णन कर सूर दास भक्त कवि हो सकते हैं तो विद्यापति क्यों नहीं? विद्यापति ने शिव स्तुति, गंगा स्तुति, काली वंदना, कृष्ण प्रार्थना जैसे भक्तीपरक पदों की भी रचना की है। विद्यापति को भक्त मानते हुए जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है "राधा जीवात्मा का प्रतीक है और कृष्ण परमात्मा के। जीवात्मा, परमात्मा से मिलने के लिए निरंतर प्रयत्नशील है।"

विद्यापति बहुआयामी कवि है। इस कारण विद्यापति के संदर्भ में एकमत न होकर वाद-विवाद होता रहा है उनके जन्मस्थान, जन्मतिथी, उनकी भाषा तथा प्रतिपाद्य को लेकर विद्वानों में एकमत नहीं है। कभी इन्हें साहित्य क श्रृंगार माना गया तो कभी लोकमानस के प्रिय कवि माना गया।

विद्यापति को भक्तों ने शैव, शाक्त, पंचदेवोपासक या वैष्णवभक्त के रूप में स्वीकृति प्रदान की। तो आलोचक ने विद्यापति को रसराज श्रृंगार का अवतार माना।

भक्ति और श्रृंगार साहित्य की मुख्य प्रवृत्तियाँ है। श्रृंगार का अर्थ है सज-धजना, चुनना, मनोकुल विषय सुख प्राप्ति का बोध होता है, जिसका स्थायी भाव रति है। दूसरी ओर भक्ति भावावेश की चरम अवस्था है। भक्त - प्रेम की सहायता से अपने आराध्य तक पहुँचता है। इसीलिए आ. रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं, “श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। जब पूज्यभाव की वृद्धी के साथ श्रद्धाभाव के सामिप्य लाभ की प्रवृत्ति हो, उसकी सत्ता के कई रूप के साक्षात्कार की वासना हो, तब हृदय में भक्ति का प्रादुर्भाव समझना चाहिए।"

भागवत के मत से भगवान में हेतुरहित निष्काम एकनिष्ठायुक्त अनवरत प्रेम का नाम भक्ति कहा गया है विद्यापति को भक्त कवि के रूप में मान्यता दी गई है। विद्वानों के मत इस प्रकार है

ग्रियर्सन से विद्यापति को भक्त कहने की परंपरा का सूत्रपात होता है। वे लिखते हैं, “विद्यापति के पद लगभग सब के सब वैष्णव पद या भजन है।... जिस प्रकार सोलोमन के गीतों को ईसाई पादरी पढा करते है, उसी प्रकार भक्त हिन्दू विद्यापति के चमत्कार पदों को पढते हैं और जरा भी कामवासना का अनुभव नहीं करते।"

डॉ. ग्रियर्सन की बात का समर्थन करते हुए श्री. नगेन्द्रनाथ गुप्त लिखते हैं, “विद्यापति की राधा-कृष्ण पदावली का सारांश यही है कि, जीवात्मा परमात्मा को खोज रहे हैं और एकान्त स्थान में परमात्मा से मिलने के लिए चिन्तित है।"

इसी कड़ी को आगे बढाते हुए डॉ. श्यामसुन्दरदास अपना मत व्यक्त करते हैं, “हिन्दी में वैष्णव-साहित्य के प्रथम कवि प्रसिद्ध मैथिल-कोकिल विद्यापति हुए। उनकी रचनाएँ राधा और कृष्ण के पवित्र प्रेम से ओत-प्रोत है।"

डॉ. जनार्दन मिश्र भी विद्यापति को भक्त कवि सिद्ध करते हैं। उनका तर्क है विद्यापति अपने को पत्नी (राधा) समझकर ईश्वर (कृष्ण) की उपासना पति के रूप में करते थे।

डॉ. जयनाथ नलिन विद्यापति को भक्त कवि के रूप में समर्थन देते हुए लिखते हैं, “भाषा और भाव की सूक्ष्मता, प्रांजलता, गहनता और सघनता के विकासक्रम की कसौटी माने तो क्रमश: शैव, शाक्त, वैष्णव धर्म की ओर उनका अग्रसर होना निश्चित होता है.... ग्रियर्सन साहब ने विद्यापति के पदों की भक्ति, रसमयता से समानता सोलोमन के पवित्र गीतों से की है। एक ईसाई जब अपने पवित्र धर्मतत्त्वों की समानता में अन्य धर्म के तत्त्वों को रखता है तो निश्चित ही उसके निर्णय का बहुत बड़ा मूल्य लगता है।"

विद्यापति की पदावली में भक्तिविषयक पद इसप्रकार है -

1) देवी वंदना स्तुतिपरक पद
2 ) शिव-गौरी स्तुति, जानकी वंदना
3) गंगा स्तुति
4 ) शिव विष्णु स्तुति
5) कृष्ण स्तुति
6 ) राधा स्तुति

1) देवी वंदना स्तुतिपरक पद: रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा संपादित पदावली में दुर्गा वंदना स्तुति के तीन पद मिलते है। पार्वती की भैरवी, दुर्गा, काली रूप में स्तुति की है। भैरवी के भयावह रूप का जयगान विद्यापति करते हैं। विनित होकर उनकी करूणादृष्टि की याचना की है। देवी दुर्गा दैत्यों को मारकर दुष्टों के मन में डर उत्पन्न करती है। अपने भक्तों की रक्षा करते हुए उन्हें आश्वस्त करती है। अपने आपको पुत्र मानकर कहते हैं, “विद्यापति कवि तुअ पद सेवक, पुत्र विसरि जनि माता ।”

2) शिव-गौरी स्तुति : पदावती में शिव-गौरी विषयक सत्रह पद है। इसमें शिव-गौरी के जीवन की घटनाओ का भक्तिभरा अंकन हुआ है।
'जय जय संकर जय त्रिपुरारि । 
जय अध पुरुष जयति अध नारी ॥" 
अर्ध-नारी नटेश्वर की स्तुति इस पद में है। शिव-पार्वती विवाह प्रसंग में हास्य-विनोद के माध्यम से भक्ति को प्रस्तुत किया गया है। अपने दोषों क आराध्य के प्रति विशदता से वर्णन कर भक्ति को प्रकट किया है।
"हर जनि बिसरब मोर ममता, 
हम नर अधम परम पतिता ।।'
पीडाजन्य दुख का वर्णन हुआ है। जानकी वन्दना पद में सीता के गुणों का बखान हुआ है।

3) गंगा स्तुति : विष्णु के पद-कमलों से निकली ब्रह्मा के कमंडल में लहरानेवाली तथा भगवान शंकर की जटाओं में वास करनेवाली गंगा, नरक का नाश करने के लिए अवतरित हुई है। प्रेम-पुलकता, क्षमायाचना, कातरता प्रार्थना आदि भाव वर्णित हुए है। गंगा-स्तुति के दो पद लिखे हैं।

4) शिव - विष्णु स्तुति : विद्यापति ने शिव और विष्णु के पद लिख कर समन्वय की स्थापना की है। यह पद शिव और विष्णु के तादात्म्य तथा विभिन्न लिलागान से संबंधित है। इस एक-रुप भक्ति का एक पद है।

5) कृष्ण स्तुति : कृष्ण की वन्दना तथा कृष्ण के चार पद पदावली में मिलते हैं। भक्त का विश्वास जब अपने आराध्य पर स्थिर हो जाता है तब अपने अपराध की क्षमा वह निडर होकर माँगता है।
ए हरि, बन्दओं तुअ पद नाए।
तुअ पद परिहरि पाय-पायोनिधि, 
पारक कओन उपाए ।
अपनी आत्मग्लानि को एक भक्त की तरह प्रस्तुत करते हुए विद्यापति ने कहा । जिसका भावार्थ है - बचपन खाने-खेलने में बीत गया, जवानी प्रमादों में चली गई और अब वृद्धावस्था सामने आ गई, नरक का भय सताने लगा। रह-रह कर पछतावा हो रहा है। भक्त की दीनता और कृष्ण की उदारता प्रस्तुत हुई है। कवि तुलसिदल के साथ आत्मसमर्पण करते हुए दिखाई देते है। विद्यापति बार-बार भगवान कृष्ण के पद-पल्लव का अवलंब माँगते है। वे कहते है, कर्मगति के कारण मानुस, पशु, पक्षी या कीट, पतंग बनें तो भी तुम्हारे गायन-कीर्तन में बुद्धि लगी रहे ऐसा माँगते है।

6) राधा स्तुति : राधा कृष्ण की प्रिया है। कृष्ण की आल्हादिनी शक्ति है। राधा के रूप का सौन्दर्य वर्णन कृष्ण अपने सखा से करते हैं। राधा जहाँ अपने चरण रखती है, कमल खिल जाते है। जहाँ उसके अंग झलकते है, वहीं बिजली की लहर दिखाई देती है। उसका मंद हास अमृत की वर्षा करता है। कृष्ण राधा को छोड़ मथुरा चले जाते है, तो राधा कृश हो जाती है। उसे विस्मृति घेर लेती है। उसे कृष्ण ही कृष्ण दिखाई देते हैं।
अनुखन माधव माधव सुमरइते सुन्दरि भेलि मधाई ।
ओ निज भाव सुभावहि बरसल अपनेहि गुन लुबुधाई।
राधा कृष्णमय हो जाती है। यह तादात्म्यता ही तो भक्त की सिद्धि है। प्रिय और प्रेमिका, आत्मा-परमात्मा के एकाकार होने की दशा का सुंदर वर्णन विद्यापति ने किया है।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि विद्यापति में भक्त जैसी गहरी अनुभूति, तीव्रता, उत्कटता दिखाई देती है। जब उन्हें सांसारिक ऐश्वर्य से विरक्ति होती है तब भक्ति के पद गाये हैं। इस विरक्ति निर्माण के पिछे भगवान का अनुग्रह भी कार्य करता है। उगना तथा गंगा संबंधी जनश्रुतियाँ रही है। भक्त - सी भावात्मकता विद्यापति के भक्ति पदों में दृष्टिगोचर होती है। मधुराभक्ति से ओतप्रोत कीर्तनिया पद के वे रचियता है।

श्रृंगारिक कवि मानने के पीछे तर्क:

पदावली में संयोग श्रृंगार पदों की अधिकता है। विद्यापति शैव थे अत: यदि भक्ति करनी होती तो शिव-पार्वती की करते न कि राधा कृष्ण की। विद्यापति ने अपने आश्रयदाता राजा शिव सिंह की प्रशंसा एवं मनोरंजन हेतु कृष्ण का प्रतीकात्मक प्रयोग किया है जो वास्तव में शिव सिंह ही है। विद्यापति के काव्य में विद्यमान भक्ति तत्त्व की सबसे तीखी आलोचना आचार्य शुक्ल करते हैं और लिखते हैं कि "आध्यात्मिक रंग के चश्में आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने 'गीत-गोविंद' को आध्यात्मिक संकेत बताया है वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।" श्रृंगार विषयक इन्हीं तर्को के आधार पर विद्यापति के काव्य को निराला 'नागिन की लहर' कहते हैं तो बच्चन सिंह 'खजुराहों की मंदिरों वाली आध्यात्मिकता' बताते हैं।

श्रृंगार शब्द श्रृंग और आर के संयोग से बना है। श्रृंगार का अर्थ कामोद्रेक और 'आर' का अर्थ है प्राप्ति । कामोद्रेक की प्राप्ति ।

श्रृंगार की परिभाषा -

अ. भरतमुनि के मत से श्रृंगार रस 'रति' स्थायीभाव से उद्भुत होता है। उसका वेश उज्जवल है। संसार में जो कुछ उज्वल दर्शनीय है वह श्रृंगार कहलाता है।

आ. विश्वनाथ के मत से काम के अंकुरित होने को श्रृंग कहते है। मन के अनुकूल वस्तु में सुख व प्राप्ति का नाम रति है।

श्रृंगार के तीन तत्त्व डॉ. पद्मा पाटील ने प्रस्तुत किए है - i) काम तत्त्व, ii) सौन्दर्य तत्त्व, iii) प्रेम तत्त्व । 

काव्यशास्त्र के अनुसार आश्रय नायक, विभाव नायिका, उद्दीपन विभाव- एकांत स्थान, चांदनी रात, - उपवन, नदी तट, रूप सौंदर्य, वेशभूषा आदि है। अनुभाव - कंप, रोमांच, स्वर- भंग, वैवर्ण्य, स्वेद है। संचारी भाव - उत्सुकता, हर्ष, लज्जा, ग्लानि, चिंता है।

श्रृंगार के दो पक्ष है - 

संयोग नायक-नायिका पास हो तो संयोग श्रृंगार होता है | 

वियोग-नायक अथवा - नायिका का साथ न होना वियोग शृंगार होता है।

विद्यापति श्रृंगारी कवि के रूप में -

विद्यापति रसराज, रससिद्ध, मैथिल कोकिल के रूप में ख्यात है। इसलिए विद्यापति को श्रृंगारी कवि के रूप में निम्न विद्वानों ने मान्यता दी है।

श्री. विनयकुमार सरकार, डॉ. सुभद्र झा, पं. शिवनंदन ठाकुर, डॉ. रामकुमार वर्मा, नगेन्द्रनाथ, डॉ. उमेश मिश्र, डॉ. बाबुराम सक्सेना, आ. रामचंद्र शुक्ल, डॉ. आनंद प्रकाश दीक्षित, डॉ. पद्मा पाटील आदि। कुछ विद्वानों के मत इस प्रकार है।

डॉ. विनयकुमार सरकार "बहुत से ऐसे लोग है, जिसके लिए सांसारिक तत्त्व, शारीरिक सौंदर्य, मिट्टी और - धूलि, अपूर्णता - संपूर्णता, हृदय और प्रकृति और स्त्री, मानवीय प्रेम, इंद्रिय सुख उपेक्षणीय है। सचमुच ही विद्यापति ने राधा-कृष्ण का जो चित्र खींचा है, उसमें वासना का रंग बहुत ही प्रखर है। आराध्य के प्रति भक्ति-भाव की जो पवित्रता होनी चाहिए उसका लेशमात्र भी कहीं पता नहीं।

डॉ. सुभद्र झा ने भी विद्यापति को शृंगारी कवि माना है।

पं. शिवनंदन ठाकुर ने विद्यापति को श्रृंगारी कवि कहा है। इसके तर्क इसप्रकार है

1) विद्यापति के ग्रंथ रचनाक्रम से कथन पुष्ट होता है - सबसे पहले उन्होंने कीर्तिलता, कीर्तिपताका की रचना की। कीर्तिसिंह के वर्णन में वीर तथा श्रृंगार का संयोग दिखाई देता है।

2 ) गुणग्राही राजा-रानी (शिवसिंह और लखिमा देवी) पाकर विद्यापति ने श्रृंगार रस की सरिता बहा दी। 

3) पदावली शृंगार रस प्रधान है और आर्यासप्तशती आदि ग्रंथों के आधार पर रचित है।

4) विवाह हे अवसर पर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट नवीन युवक-युवती के मनमें, मुग्धा के मुग्ध हृदय से अपरिचित के हृदय पर गीतों में श्रृंगार रस की शिक्षा द्वारा रति नामक स्थायीभाव उत्पन्न करने के लिए विद्यापति की पदावली की रचना हुई है। इसलिए ये गीत शादी-ब्याह के अवसर पर मिथिलांचल में गाये जाते है।

डॉ. बाबुराम सक्सेना का मत है - "विद्यापति के पदों के अध्ययन से पता चलता है कि वे श्रृंगारी कवि थे। इन पदों पर राधा-कृष्ण की भक्ति का आरोप करना पद पदार्थ के प्रति अन्याय है। कवि विद्यापति के रसिक होने का परिचय उनके प्रथम ग्रंथ 'कीर्तिलता' पढ़ने से ही हो जाता है। "

डॉ. रामकुमार वर्मा - "राधा का प्रेम भौतिक और वासनामय प्रेम है। आनंद ही उसका उद्देश्य है और सौंदर्य ही उसका कार्य-कलाप । विद्यापति के इस बाह्य संसार में भगवतभजन कहाँ? इस वय: संधि में ईश्वर से संधि कहाँ... सद्यस्नाता में ईश्वर से नाता कहाँ और अभिसार में भक्ति का सार कहाँ। उनकी कविता विलास की सामग्री है, उपासना की साधना नहीं। उससे हृदय मतवाला हो सकता है, शांत नहीं।"

आ. रामचंद्र शुक्ल 'आजकल आध्यात्मिक चश्मा बहुत सस्ता हो गया है।" स्वयं विद्यापति ने 'कीर्तिपताका' में लिखा है- 'राम को सीता की विरह वेदना सहनी पडी इसलिए उन्हें काम कला निपुण अनेक स्त्रियों के साथ रहने की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई। इसी कारण उन्होंने कृष्णावतार लेकर गोपियों के साथ विहार किया।" राधा-कृष्ण उनकी दृष्टि में सामान्य नायक-नायिका मात्र है।

विद्यापति को श्रृंगारी कवि मानने का तर्क यह है की वे राजकवि और राजसभासद थे। दरबारों का वातावरण विलासी था। श्रृंगार के अलावा और कोई रस सुनना पसंद नहीं था। विद्यापति यदि भक्त कवि होते तो राजाश्रय का स्वीकार ही नहीं करते। वे दरबार में जाते ही नहीं। उन्होंने अलग-अलग राजाओं की आज्ञा से उनकी फमाईश पर सद्यस्नाता सुंदरी तथा कुएँ पर खडी दीपशिखा दिखानेवाली रमणियों के चित्र प्रस्तुत किये। अपने राजा-रानी को खुश करने के लिए विद्यापति ने राधा-कृष्ण के नितांत एकांत क्षणों में भी दखलंदाजी की है।

सूरदास के दृष्टिकूट, मीराँबाई के गिरिधर गोपाल, कबीर के स्वामी राम क्रमशः सखा, पति और स्वामी होने पर भी उनके निजी कक्षमें नहीं जाते। परंतु विद्यापति अपने आराध्य के ऐसे श्रृंगारी चित्र प्रस्तुत करते हैं जिससे उन्हें ग्राम दान, धन-दान, तुला दान और उपाधि दान स्वरूप प्राप्त हुए।

विद्यापति, पदावली में सुंदरी राधा के अंग-प्रत्यंगों की चर्चा करते नहीं हिचकिचाते। 

अनहि विद्यापति सुन बरजोबति, एहन जगत नहिं आने । 

राजा शिवसिंह रूपनरायन लखिमादेई पतिभाने ॥

राजा शिवसिंह और रानी लखिमादेवी विद्यापति के आराध्य राधा-कृष्ण की सभी लिलाओं के साक्षी है। इसी कारण विद्यापति लिखते हैं - 

"राजा शिवसिंघ रूपनरायन, इ रस सकल से पावे।" 

आगे वे लिखते हैं - "भनइ विद्यापति रति अवसान राजा शिवसिंघ इ रस जान ।। "

प्रिय वस्तु में प्रेम प्रेरित होकर उन्मुख होने की भावना रति कहलाती है। यही रतिभाव शृंगार का स्थायीभाव है। विद्यापति रससिद्ध, रसिक शिरोमणि कवि है। जिस भाव में उनका मन रमा, उसी भावको उन्होंने चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। इसलिए विद्यापति की कविता में न वैराग्य, न भक्ति बल्कि वैराग्याभास और भक्त्याभास है। वे मूलत: शृंगारी कवि है। उनके द्वारा प्रस्तुत चित्रण मांसल और शारीरिक है। रूप-सौन्दर्यवर्णन, वय:संधि वर्णन, सद्यस्नाता वर्णन तथा श्रृंगार के सभी हाव-भावों का अंकन विद्यापति ने सफलतापूर्वक किया है। इसलिए निष्कर्ष यह है कि पदावली के कारण वे भक्त कवि सिद्ध नहीं होते।


निष्कर्ष

उपर्युक्त विश्लेषण के आलोक में यह माना जा सकता है कि विद्यापति में श्रृंगार समन्वित भक्ति है। इनके यहाँ लौकिक प्रेम ही इश्वरोन्मुख होकर कहीं-कहीं भक्ति में परिणत हो जाता है। इनकी भक्ति भावना पर अपनी पूर्ववर्ती परंपरा का प्रभाव है साथ ही, प्रेम तत्त्व का सम्मिश्रण भी है।

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