30. व्याकरण हिन्दी || 01.03 व्यंजन और उनके प्रकार


1.2 व्यंजन और उनके प्रकार
1.2 व्यंजन और उनके प्रकार
(2) व्यंजन (Consonant):- जिन वर्णो को बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यंजन कहते है। इसे दूसरे शब्दो में इस प्रकार कह सकते हैं कि व्यंजन वे वर्णों हैं, जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है।
जैसे- क, , , , , , , , , म इत्यादि।

'' से विसर्ग ( : ) तक सभी वर्ण व्यंजन हैं। प्रत्येक व्यंजन के उच्चारण में '' की ध्वनि छिपी रहती है। '' के बिना व्यंजन का उच्चारण सम्भव नहीं। जैसे-
क् + अ = क
ख् + अ = ख,
प् + अ = प।

व्यंजन वह ध्वनि है, जिसके उच्चारण में मुख के भीतर से भीतर से आती हुई वायु, मुख में कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में,  बाधित होती है। इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि स्वरवर्ण स्वतंत्र ध्वनि उच्चारण में स्वतंत्र होते हैं जबकि व्यंजनवर्ण ध्वनि उच्चारण स्वरों पर आश्रित है।

हिन्दी में व्यंजन वर्णो की संख्या 33 है।

व्यंजनों के प्रकार -
व्यंजनों तीन प्रकार के होते है-
(1) स्पर्शस्थ व्यंजन

(2) अन्तःस्थ व्यंजन

(3) उष्मस्थ व्यंजन

(1) स्पर्शस्थ व्यंजन :- स्पर्श का अर्थ होता है -छूना। जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय जीभ मुँह के किसी भाग जैसे- कण्ठ, तालु, मूर्धा, दाँत, अथवा होठ का स्पर्श करती है, उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते है। दूसरे शब्दो में- ये कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त और ओष्ठ स्थानों के स्पर्श से बोले जाने वाली व्यंजनों को स्पर्शस्थ व्यंजन कहते हैं। अलग-अलग स्थानों से बोले जाने के कारण इन्हें हमने अलग-अलग वर्गों में विभक्त किया है इसलिए इन्हें हम 'वर्गीय व्यंजन' भी कहते है। अंतस्थ व्यंजन ओं की संख्या 25  है।


(1) कवर्ग- क ख ग घ ङ
(2) चवर्ग- च छ ज झ ञ
(3) टवर्ग- ट ठ ड ढ ण (ड़, ढ़) ।
(4) तवर्ग- त थ द ध न
(5) पवर्ग- प फ ब भ म


अंतस्थ व्यंजन ओं की संख्या 25  है।

(1) कवर्ग- क ख ग घ ङ
ये कण्ठ का स्पर्श करते है। इसलिए इन वर्णों को कंठस्थ या कंठय वर्ण कहते हैं।

(2) चवर्ग- च छ ज झ ञ
ये तालु का स्पर्श करते है। यह तालव्य वर्ण कहलाते हैं।

(3) टवर्ग- ट ठ ड ढ ण (ड़, ढ़) ।
ये मूर्धा का स्पर्श करते है। इसलिए यह मूर्धन्य वर्ण कहलाते हैं।

(4) तवर्ग- त थ द ध न
ये दाँतो का स्पर्श करते है। यह दंतस्थ वर्ण कहलाते हैं।

(5) पवर्ग- प फ ब भ म
ये होठों का स्पर्श करते है। यह ओष्ठय है वर्ण कहलाते हैं।


(2) अन्तःस्थ व्यंजन :- अन्तःस्थ का विच्छेद करने पर हमें दो शब्द अन्तः + स्थ प्राप्त होते हैं। जिन का अर्थ इस प्रकार होता है अन्तः = मध्य / बीच, स्थ = स्थित। 'अन्तः' का अर्थ होता है- 'भीतर' और 'स्थ' का अर्थ होता है 'स्थित होना' अर्थात उच्चारण के समय जो व्यंजन मुँह के भीतर ही रह जाते हैं, उन्हें अन्तःस्थ व्यंजन कहते है।

इन व्यंजनों का उच्चारण स्वर तथा व्यंजन के मध्य का-सा होता है। इन वनों के उच्चारण के समय जिह्वा मुख के किसी भाग को स्पर्श नहीं करती।

ये व्यंजन चार होते है- य, , , व।

इनका उच्चारण जीभ, तालु, दाँत और ओठों के परस्पर सटाने से होता है, किन्तु कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता। इन व्यंजनों का उच्चारण स्वर तथा व्यंजन के मध्य का-सा होता है, अतः ये चारों अन्तःस्थ व्यंजन 'अर्द्धस्वर' कहलाते हैं।

(3) उष्मस्थ व्यंजन :- जिन वर्णों के उच्चारण में उत्पन्न वायु का निष्कासन के घर्षण से ऊष्मा उत्पन्न होती है वे वर्ण उष्मस्थ वर्ण कहलाते हैं।

उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय हवा मुँह के विभिन्न भागों से टकराये और साँस में गर्मी पैदा कर दे, उन्हें उष्मस्थ व्यंजन कहते है।

ऊष्म = गर्म। इन व्यंजनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़ खाकर ऊष्मा पैदा करती है यानी उच्चारण के समय मुख से गर्म हवा निकलती है।

उष्म व्यंजनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
ये भी चार व्यंजन होते है- श, , , ह।

उच्चारण स्थान के आधार पर व्यंजन के भेद

उच्चारण के स्थान (मुख के विभिन्न अवयव) के आधार पर कंठ, तालु आदि

कंठ्य : (गले से) क ख ग घ ङ

तालव्य : (तालू से) च छ ज झ ञ य श

मूर्धन्य : ( तालू के मूर्धा भाग से) ट ठ ड ढ ण ड़ ढ़ ष

दन्त्य : (दांतों के मूल से) त थ द ध न

वर्त्स्य : (दंतमूल से) (न) स ज़ र ल

ओष्ठ्य : (दोनों होठो से) प फ ब भ म

दंतोष्ठ्य : (निचले होठ और ऊपर के दांतों से) व फ़


स्वरयंत्रीय : (स्वरयंत्र से) ह


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