30. व्याकरण हिन्दी || 01.01 व्याकरण और स्वरों का ज्ञान


व्याकरण और स्वरों का ज्ञान
व्याकरण - व्याकरण जिस विद्या से किसी भाषा के शुद्ध रूप से बोलने तथा लिखने के नियमों की व्यवस्था का ज्ञान होता है उसे व्याकरण कहते हैं।
दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि वह विद्या जिसके द्वारा में शुद्ध रूप से लिखना, पढ़ना और बोलना सीखते हैं व्याकरण कहलाता है।

वर्णमाला किसी भाषा के सभी वर्णों के समूह को उस भाषा की वर्णमाला कहते हैं।
इसे हम ऐसे भी कह सकते है, किसी भाषा के समस्त वर्णो के समूह को वर्णमाला कहते है।
प्रत्येक भाषा की अपनी वर्णमाला होती है।
हिंदी- अ, , , , ग.....
अंग्रेजी- A, B, C, D, E....
वर्ण- वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके खंड या टुकड़े नहीं किये जा सकते। जैसे- अ, , , , , ख् इत्यादि।

वर्ण - भाषा की सबसे छोटी इकाई , जिसके और खंड नहीं किये जा सकते वर्ण कहलाती है।
उदाहरण द्वारा मूल ध्वनियों को यहाँ स्पष्ट किया जा सकता है। '
राम' और 'गया' में चार-चार मूल ध्वनियाँ हैं, चारों स्वतंत्र ध्वनियाँ हैं। जिनके खंड नहीं किये जा सकते जैसे-
र + आ + म + अ = राम
र + अ + म + आ = रमा
ग + आ + य + अ = गाय
ग + आ + य + आ = गाया
ग + अ + य + आ = गया

इन्हीं अखंड मूल ध्वनियों को वर्ण कहते हैं। हर वर्ण की अपनी लिपि होती है। लिपि को वर्ण-संकेत भी कहते हैं। हिन्दी में 52 वर्ण माने जाते हैं।
वर्ण के भेद
हिंदी भाषा में वर्ण दो प्रकार के होते है।- (1) स्वर (vowel)  और (2) व्यंजन (Consonant)
(1) स्वर (vowel) :- जिन वर्णों का उच्चारण करते समय सांस कंठ, जीभ, होठ तालु आदि स्थानों से बिना रुके हुए निकलती है। उन्हें स्वर कहते हैं।
दूसरे शब्दों में वे वर्ण जिनके उच्चारण में किसी अन्य वर्ण की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, स्वर कहलाता है। इसके उच्चारण में कंठ, तालु, जीभ, होठ आदि का उपयोग नहीं होता है।

हिंदी में स्वर

हिंदी वर्णमाला में सौलह (16) स्वर माने गए हैं।
जैसे- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ॡ।
हम सामान्यत 13 स्वरों का ही उपयोग करते हैं।
जैसे- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ।

स्वर के भेद
स्वर के दो भेद होते है-
(i)
मूल स्वर (ii) संयुक्त स्वर
(i) मूल स्वर :- पूर्णता स्वतंत्र स्वर वर्णों को हम मूल स्वर कहते हैं। जैसे -
, , , , , , ,
 (ii) संयुक्त स्वर :- वे स्वर वर्णों जो अन्य स्वर की सहायता से बोले जाते हैं। संयुक्त स्वर कहलाते हैं। जैसे -
ऐ (अ +ए) और औ (अ +ओ)

मूल स्वर के भेद
मूल स्वर के तीन भेद होते है -
(i)
ह्स्व स्वर (ii) दीर्घ स्वर (iii)प्लुत स्वर
(i)ह्रस्व स्वर :- जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय लगता है। या एक मात्रा का समय लगता है। उन्हें ह्स्व स्वर कहते है। जिसे लिखते वक्त हम खड़ी पाई ( | ) से दर्शाते हैं।
ह्स्व स्वर केवल चार होते है -अ आ उ ऋ।
'' की मात्रा (ृ) के रूप में लगाई जाती है तथा उच्चारण 'रि' की तरह होता है।

(ii) दीर्घ स्वर :- वे स्वर जिनके उच्चारण में ह्रस्व स्वर से दोगुना समय या एक मात्रा का समय लगता है, वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं। इनके उच्चारण में केवल दो मात्राओं का समय लगता है । जिसे लिखते वक्त हम ( ऽ ) से दर्शाते हैं।
दीर्घ स्वर सात होते है। जो विभिन्न हस्व स्वरों के योग से बनते हैं। जैसे - आ, , , , , , औ।

दीर्घ स्वर दो स्वर के योग से बनते है।
जैसे-
आ = (अ +अ )
 = (इ +इ )
 = (उ +उ )
 = (अ +इ )
 = (अ +ए )
ओ = (अ +उ )
औ = (अ +ओ )

(iii) प्लुत स्वर :- वे स्वर जिनके उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी अधिक समय यानी तीन मात्राओं का समय लगता है, प्लुत स्वर कहलाते हैं। इसे 'त्रिमात्रिक' स्वर भी कहते हैं।
सरल शब्दों में- जिस स्वर के उच्चारण में तिगुना समय लगे, उसे 'प्लुत' कहते हैं। इनके उच्चारण में केवल तीन मात्राओं का समय लगता है । जिसे लिखते वक्त हम ( ३ ) से दर्शाते हैं।
इसका चिह्न (३ या ऽऽ) है। इसका प्रयोग अकसर पुकारते समय किया जाता है। जैसे- ओ३म् या ओऽऽम् , सुनोऽऽ, राऽऽम।
हिन्दी में साधारणतः प्लुत का प्रयोग नहीं होता। वैदिक भाषा में प्लुत स्वर का प्रयोग अधिक हुआ है।

अयोगवाह स्वर - अं, अः अयोगवाह कहलाते हैं। वर्णमाला में इनका स्थान स्वरों के बाद और व्यंजनों से पहले होता है। अं को अनुस्वार तथा अः को विसर्ग कहा जाता है।

अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग
अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग- हिन्दी में स्वरों का उच्चारण अनुनासिक और निरनुनासिक होता हैं। अनुस्वार और विर्सग व्यंजन हैं, जो स्वर के बाद, स्वर से स्वतंत्र आते हैं। इनके संकेतचिह्न इस प्रकार हैं।

अनुस्वार ( ं) - यह स्वर के बाद आनेवाला व्यंजन है, जिसकी ध्वनि नाक से निकलती है। जैसे- अंगूर, अंगद, कंकन।

अनुनासिक (ँ) - ऐसे स्वरों का उच्चारण नाक और मुँह से होता है और उच्चारण में लघुता रहती है। जैसे- गाँव, दाँत, आँगन, साँचा इत्यादि।
(वैसे अधिकतर लोग चंद्रबिंदु (ँ ) के बारे में जानते नहीं हैं । लेकिन विद्वानों का कहना है कि यह अनुनासिक का आधा होता है, जिसे बिंदु के नीचे एक आधार बनाकर दर्शाया जाता है। जो कालांतर में चंद्रबिंदु (ँ ) में बदल गया।)

विसर्ग( ः) - अनुस्वार की तरह विसर्ग भी स्वर के बाद आता है। यह व्यंजन है और इसका उच्चारण 'अह्' की तरह होता है। संस्कृत में इसका काफी व्यवहार है। हिन्दी में अब इसका अभाव होता जा रहा है; किन्तु तत्सम शब्दों के प्रयोग में इसका आज भी उपयोग देखा जा सकता है। जैसे- मनःकामना, पयःपान, अतः, स्वतः, दुःख इत्यादि।

टिप्पणी- अनुस्वार और विसर्ग न तो स्वर हैं, न व्यंजन; किन्तु ये स्वरों के सहारे चलते हैं। स्वर और व्यंजन दोनों में इनका उपयोग होता है। जैसे- अंगद, रंग।

इस सम्बन्ध में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का कथन है कि ''ये स्वर नहीं हैं और व्यंजनों की तरह ये स्वरों के पूर्व नहीं पश्र्चात आते हैं, ''इसलिए व्यंजन नहीं। इसलिए इन दोनों ध्वनियों को 'अयोगवाह' कहते हैं।'' अयोगवाह का अर्थ है- योग न होने पर भी जो साथ रहे।
अनुस्वार और अनुनासिक में अन्तर
1. अनुनासिक के उच्चारण में नाक से बहुत कम साँस निकलती है और मुँह से अधिक, जैसे- आँसू, आँत, गाँव, चिड़ियाँ इत्यादि।
पर अनुस्वार के उच्चारण में नाक से अधिक साँस निकलती है और मुख से कम, जैसे- अंक, अंश, पंच, अंग इत्यादि।

2. अनुनासिक स्वर की विशेषता है, कि अनुनासिक स्वरों पर चन्द्रबिन्दु लगता है। लेकिन, अनुस्वार एक व्यंजन ध्वनि है।
अनुस्वार की ध्वनि प्रकट करने के लिए वर्ण पर बिन्दु लगाया जाता है। तत्सम शब्दों में अनुस्वार लगता है और उनके तद्भव रूपों में चन्द्रबिन्दु लगता है ; जैसे- अंगुष्ठ से अँगूठा, दन्त से दाँत, अन्त्र से आँत।


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