प्रश्न-1 कबीर के निर्गुण ब्रह्म की कल्पना और उनकी जाति-पांति विरोधी सामाजिक संबंध है। इस मत की समीक्षा कीजिए।

प्रश्न-2 नागमती वियोग खण्ड में विरह वेदना और प्रकृति संवेदना एक-दूसरे में घु हैं। उदाहरण सहित इस कथन की विवेचना कीजिए।

प्रश्न-3 भ्रमरगीत सार के आधार पर सूरदास की काव्य कला की विशेषताएँ बताइए

प्रश्न - 4 विनय पत्रिका के साहित्यिक महत्त्व की विवेचना कीजिए।

प्रश्न-5 तुलसीदास को लोकवादी किसने और क्यों कहा है?

प्रश्न-6 कबीर की भाषा और काव्य कला पर विचार कीजिए।

उत्तर नंबर 1

कबीर की निर्गुण ब्रह्म की कल्पना (उपासना)

भारतीय धर्म साधना के इतिहास में कबीरदास जी एक ऐसे विचारक एवं प्रतिभाशाली कवि हैंजिन्होंने दीर्ध काल तक भारतीय जनता का पथ प्रदर्शन किया निर्गुण माने सत्वरजस् और तमस् आदि गुणों से मुक्त इन तीन गुणों से ही अहंकारबुद्धिशरीरजन्म-मरण आदि विकृतियों का विकास होता है 

परमात्मा इन गुणों से परेनिर्गुण-निराकार हैं निर्गुण संतों ने राम को सगुण न मानकर लौकिक गुणों से रहित निर्गुण माना निर्गुण मत का उपदेश है कि हृदय में स्थित भगवान को न देखकर बाहर मंदिर में जाकर देवी-देवताओं की पूजा करना ठीक नहीं है इन्होंने मूर्तिपूजा का भी विरोध किया है निर्गुण-संप्रदाय के अनुसार अपनी जीविका के लिए भिक्षा लेना ईश्वरानुभूति में विघ्न लाता है किसी से कुछ मांगना कबीर ने मृत्यु के समान दुखदायी बताया है I

परम्परागत रूढियोंअंधविश्वासोंबाह्य आडंबरों के विरोधी कबीरदास जी ने सभी धर्मों की मूलभूत एकता को स्वीकार किया है निर्गुण संत होने के कारण उन्होंने मूर्तिपूजाव्रतउपवास आदि का विरोध करते हुए धर्म के सामान्य तत्वों-सत्यअहिंसाप्रेमकरूणासंयमसदाचार आदि का समर्थन करते हुए एक व्यापक धर्म की प्रतिष्ठा कीजिसे सब लोग समान रुप से अपना सकें । निर्गुण-निराकार ईश्वर में विश्वास रखने वाले कबीरदास संसार में ईश्वर का एक ही रूप देखते थे । जातियों और उपजातियों में विभक्त समाज के विद्वेष को दूर करने के लिए उऩ्होंने ऐकेश्वरवाद का प्रचार  किया । कबीरजी ने राम की महत्ता स्वीकार की है । किन्तु वे दशरथ पुत्र राम के उपासक नहीं थे । उनका राम निर्गुण-निराकार परब्रह्म था । कबीर ने इस राम के लिए हरिगोविंदकेशवमाधव आदि अनेक शब्दों का प्रयोग किया है जो उसकी अनन्त गुणराशि को संकेत करने के लिए किया है । विश्व सृष्टि के रुप में व्यापक राम को विष्णु’, जीव के दस दरवाजों को खोल देनेवाले राम को करीम’, ज्ञानगम्य राम को  गोरखअलख निरंजन राम को अल्लाह तीनों भुवन के एकमात्र योगी राम को नाथ कहते हुए उन्होंने यह प्रतिपादन करना चाहा कि राम सनातन तत्व है और वही सर्वरूपों में विद्यमान है । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रेमवश कबीर ने अपने राम को विभिन्न नामों में पुकारा है

कबीर के अनुसार अन्योन्याश्रय भाव से परमात्मा विश्व में और विश्व परमात्मा में उपस्थित है । इसी कारण से वे मन्दिर और मूर्ति में उसे सीमित करना पसंद नहीं करते । उनके मत में परमात्मा का वर्णन किसी सीमित रूप-रेखा में असंभव है । उनका अंतिम निर्णय यही रहा कि केवल वही हैऔर कोई नहीं है । उनके निर्गुण का विधान और सगुण का निषेध इसी तात्पर्य से प्रेरित है ।


कबीर की सामाजिक चेतना

संत   कबीर   निर्गुण   मत   के   अनुयायी   कवि   है।   भक्ति   काल   में   निर्गुण   भक्तों   में   कबीर   को   सर्वोच्च   स्थान   दिया   गया   है।   भारतभूमि   जो   अनेक   रत्नों   की   खान   रही   है   उन्हीं   महान्   रत्नों   में   से   एक   थे   संत   कबीर।   कबीर   का   अरबी   भाषा   में   अर्थ   है  -  महान्।   वे   भक्त   और   कवि   बाद   में   थे, पहले   समाज   सुधारक   थे।   वे   सिकन्दर   लोदी   के   समकालीन   थे।   कबीर   की   भाषा   सधुक्कड़ी   थी   तथा   उसी   भाषा   में   कबीर   ने   समाज   में   व्याप्त   अनेक   रूढ़ियों   का   खुलकर   विरोध   किया   है।   हिन्दी   साहित्य   में   कबीर   के   योगदान   को   नकारा   नहीं   जा   सकता।   रामचन्द्र   शुक्ल   ने   भी   उनकी   प्रतिभा   मानते   हुए   लिखा   है    प्रतिभा   उनमें   बड़ी   प्रखर   थी।  

कुरीतियों का विरोध

कबीर   के   समय   में   देश   संकट   की   घड़ी   से   गुजर   रहा   था।   सामाजिक   व्यवस्था   पूरी   तरह   से   डगमगाई   हुई   थी।   अमीर   वर्ग, वैभव - विलासिता   का   जीवन   जी   रहा   था,   वहीं   गरीब   दो   वक्त   की   रोटी   के   लिए   तरस   रहा   था।   हिन्दू   और   मुस्लिम   के   बीच   जाति - पांति,   धर्म   और   मजहब   की   खाई   गहरी   होती   जा   रही   थी।   एक   महान   क्रान्तिकारी   कवि   होने   के   कारण   उन्होंने   समाज   में   व्याप्त   कुरीतियों,   बुराईयों   को   उजागर   किया।   संत   कबीर   भक्तिकालीन   एकमात्र   ऐसे   कवि   थे   जिन्होंने   राम - रहीम   के   नाम   पर   चल   रहे   पाखंड,   भेद - भाव,   कर्म - कांड   को   व्यक्त   किया   था।   आम   आदमी   जिस   बात   को   कहने   क्या   सोचने   से   भी   डरता   था,   उसे   कबीर   ने   बड़े   निडर   भाव   से   व्यक्त   किया   था।   कबीर   ने   अपनी   वाणी   द्वारा   समाज   में   व्याप्त   अनेक   बुराईयों   को   दूर   करने   का   प्रयास   किया।   उनके   साहित्य   में   समाज   सुधार   की   जो   भावना   मिलती   है।   उसे   हम   इस   प्रकार   से   देख   सकते   हैं।


धार्मिक   पाखण्ड   का   विरोध

धार्मिक   पाखण्ड   का   विरोध   करते   हुए   कबीर   कहते   हैं   भगवान   को   पाने   के   लिए   हमें   कहीं   जाने   की   जरूरत   नहीं   है।   वह   तो   घट - घट   का   वासी   है।   उसे   पाने   के   लिए   हमारी   आत्मा   शुद्ध   होनी   चाहिए।   भगवान      तो   मंदिर   में   है,      मस्जिद   में   है।   वह   तो   हर   मनुष्य   में   है।

‘‘ कस्तुरी   कुण्डली   बसै,   मृग   ढूंढें   बन   माँहि।

एसै   घटि   घटि   राम   हैं,   दुनियाँ   देखै   नाँहि।।  

 माला   फेरत   जुग   गया,   गया      मन   फेर,

कर   का   मनका   डारि   के   मन   का   मनका   फेर।


कबीर व मूर्ति पूजा 

कबीर ने मूर्ति पूजा की भी कड़े शब्दों में निंदा की है। अगर पत्थर पूजने से भगवान मिलता है तो मैं तो पूरे पहाड़ को ही पूजने लग जाऊंगा।

“ पाथर पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार।
घर की चाकी कोउ न पूजै, जा पीसा खाए संसार।। ” 

कबीर जी हिंसा का विरोध करते हैं। एक जीव दूसरे जीव को खाता है तो कबीर को बहुत ही टीस होती है। वे उन्हें समझाते हुए कहते हैं -

बकरी पाती खात है, ताकी काठी खाल,
जो नर बकरी खात है, तिनको कौन हवाल। ”

कबीर के अनुसार, जिसमें प्रेम, दया व करूणा भावना है वही सबसे बड़ा ज्ञानी है। बड़े - बड़े ज्ञानी भी प्रेम भावना के बिना मूर्ख के समान है।

“ पोथी पढ़ी - पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़़े, सो पंडित होय ” ।

साथ   ही   कबीर   जी   मनुष्य   को   समझाते   हुए   कहते   हैं   कि   यह   मनुष्य   जीवन   क्षण - भर   के   लिए   है।   इस   पर   हमें   घमण्ड   नहीं   करना   चाहिए।   यह   तो   पानी   के   बुलबुले   के   समान   पल   में   नष्ट   हो   जाएगा।   हमें   इसे   अच्छे   कर्मों   में   लगाना   चाहिए।

 पानी   केरा   बुदबुदा,   उस   मानस   की   जाति।

एक   दिनाँ   छिप   जाता   है,   जो   तारा   प्रभात।   

जाँति - पाँति   व   ऊँच - नीच   की  निंदा  

कबीर   ने   समाज   में   व्याप्त   जाँति - पाँति      ऊँच - नीच   की   भी   कड़े   शब्दों   में   निंदा   की   है।   वे   मनुष्य   के   ज्ञान      कर्म   को   महान   मानते   हुए   कहते   हैं  -

 जाँति      पूछो   साधा   की   पूछ   लीजिए   ज्ञान।

मोल   करो   तलवार   का   पड़ा   रहने   दो   म्यान।   


गुरू   को    महत्व

कबीर   ने   गुरू   को   बहुत   महत्व   दिया   है।   उनकी   अहम्   प्रेरणा   का   मूल   स्त्रोत   उनके   गुरू   ही   थे   जिनकी   कृपा   से   उन्होंने   सभी   संकीर्ण   बन्धनों   को   तोड़ा,   वे   स्वतन्त्र - चिन्तक,   उन्होंने   बहुत - सी   ज्ञानपूर्ण   सच्चाईयों   को   सामान्य   जन   तक   पहुँचाया,   आत्म - ज्ञान   प्राप्त   करना,   मूल   सत्य   से   परिचित   होना,   इस   सब   कार्यों   की   प्रेरणा   देने   वाले   उनके   गुरू   ही   थे।   वही   इस   मार्ग   को   बताने   वाले   थे।

 सतगुर   की   महिमा   अनंत,   अनंत   किया   उपगार,

लोचन   अनंत   उघाड़िया,   अनंत   दिखावण   हार।। 

कबीर   ने   गुरू   को   परमात्मा   से   भी   बड़ा   दर्जा   दिया   है   तथा   वो   कहते   हैं   कि   गुरू   ही   की   भक्ति   के   द्वारा   हमें   परमात्मा   मिलते   हैं।   वो   कहते   हैं  -

गुरू   गोबिन्द   दोउ   खड़े,   काकै   लागू   पाय।

बलिहारी   गुरू   आपने,   गोबिन्द   दियो   बताय।

X X    X

सतगुरू   हमसे   रीझकर,   एक   कहा   परसंग।

बरसा   बादल   पे्रम   का,   भीज   गया   सब   अंग।   


नारी  निंदक

कबीर   ने   नारी   की   निंदा   की   है।   उन्होंने   नारी   को   भक्ति   के   मार्ग   में   बाधा   माना   है।   नारी   को   माया   स्वरूप   माना   है 

 नारी   कीझांई   परै,   अंधा   होत   भुजंग।

कबीर   तिन   की   कौन   गति,   जो   नित   नारी   के   संग।। 

नाथ   योग   का   प्रभाव

कबीर   जी   नाथ   योग   से   प्रभावित   थे।   इसी   कारण   उन्होंने   नारी   को   माया   स्वरूप   माना   है   तथा   साथ   ही   उन्होंने   पतिव्रता   नारी   की   भूरी - भूरी   प्रशंसा   भी   की   है।

 पतिव्रता   मैली   भली,   काली   कुचित   कुरूप।

वाकै   एके   रूप   पर,   वारूं   कोटि   स्वरूप।।   

धार्मिक   सुधार   ओर   समाज   सुधार   का   घनिष्ठ   सम्बन्ध   है।   धर्म   सुधारक   को   समाज   सुधारक   होना   पड़ता   है।   कबीर   ने   भी   समाज   सुधार   के   लिए   अपनी   वाणी   का   उपयोग   किया   है।   कबीर   के   अनुसार   जन्म   से   ही   कोई   द्विज   या   शूद्र   अथवा   हिन्दू      मुसलमान   नहीं   हो   सकता।   इसको   कबीर   ने   कितने   सीधे   किन्तु   मन   में   रखने   वाले   ढंग   से   कहा   है  -

 जौ   तूँ   बाँभन   बंभनी   जाया।   तो   आन   वाट   है   क्यों   नहिं   आया।।

जौ   तूँ   तुरक   तुरकनी   का   जाया।   तौ   भीतर   खतना   क्यों      कराया।। 


कबीर   ने   उच्चता   और   नीचता   का   संबंध   व्यवसाय   के   साथ   नहीं   जोड़ा   है   क्योंकि   कोई   व्यवसाय   नीचा   नहीं   है।   अपने   को   जुलाहा   कहने   में   भी   उनहोंने   कहीं   संकोच   नहीं   किया   और   वे   स्वयं   भी   जीवनभर   ये   काम   करते   रहते।   वे   उन   ज्ञानियों   में   से   नहीं   थे   जो   हाथ   पांव   समेट   कर   पेट   भरने   के   लिए   समाज   के   ऊपर   भार   बनकर   रहते   हैं।   वे   परिश्रम   का   महत्व   जानते   थे   और   आजीविका   के   लिए   ही   जुलाहे   का   काम   करते   रहे।

कबीर   जी   धन   सम्पत्ति   जोड़ना   भी   उचित   नहीं   समझते   थे।   उन्होंने थोड़े   में   ही   संतोष   करने   का   उपदेश   दिया   है।   कबीर   जी   ने   आगे   की   पीढ़ी   के   लिए   भी   धन   का   संचय      करने   का   उपदेश   दिया   है  -  क्योंकि   वे   जानते   थे   कि   अगर   संतान   अच्छी      संस्कारी   है   तो   उसके   लिए   धन   की   जरूरत   नहीं   है।   अगर   संतान   आलसी   है   तो   वह   सारे   संचित   धन   को   बेकार   में   व्यर्थ   कर   देगा।   इसलिए   कबीर   ने कहा   है  -

पूत   कपूत   तो   क्यों   धन   संचय

पूत   सपूत   तो   क्यों   धन   संचय।


कबीरदास   जी   ने   सुकर्म   के   साथ - साथ   लोगों   को   उद्यम   करने   का   भी   उपदेश   दिया   है   जिससे   आर्थिक   तंगी   से   निपटा   जा   सके   और   पेट   भरने   के   लिए   किसी   दूसरे   पर   निर्भर   ना   रहें।

परिश्रम   करने   की   शिक्षा   देने   का   कबीर   जी   का   मकसद   गरीबों   की   गरीबी   दूर   करना   तो   था   ही,   साथ   में   देश      समाज   की   उन्नति   करने   से   भी   था।   इसलिए   कबीर   कहते   थे  -

‘‘ कबीर   उद्यम   अवगुण   को   नहीं ,  जो   करि   जाने   कोय।

उद्यम   में   आनन्द   है ,  सांई   सेती   होय।।   


उन्होंने   जीवन   को   क्षण   भंगुर   बता   कर ,  लोगों   को   भक्ति   और   मानव   सेवा   का   फल   प्राप्त   करने      साथ   ही   मनुष्य   को   दुष्कर्म   करने   के   प्रति   भी   सचेत   किया   है।

 पानी   केरा   बुदबुदा,   अस   मानुस   की   नात,

एक   दिना   छिप   जाएगा,   ज्यों   तारा   परभात।  


इसमें   कबीर   ने   मनुष्य   के   शरीर   को   क्षण   भंगुर   कहा   है   कि   जिस   प्रकार   पानी   का   बुलबुला   क्षण   में   ही   नष्ट   हो   जाता   है   उसी   प्रकार   मनुष्य   शरीर   भी   पल   में   नष्ट   हो   जाएगा।   इसलिए   हमें   अच्छे   कर्म   करने   चाहिए।


डॉ. पारसनाथ   तिवारी   लिखते   हैं    सच्ची   बात   यह   है   कि   हिन्दी   साहित्य   में   कबीर   से   बड़ा   मानवतावादी   कोई   नहीं   हुआ।   उन्होंने   तत्कालीन   भारतीय   समाज   में   प्रचलित   समस्त   अंधविश्वासों,   रूढ़ियों   तथा   मिथ्या   सिद्धान्तों   द्वारा   प्रचारित   सामाजिक   विषमताओं   का   मूलोच्छेद   करने   का   बीड़ा   उठाया   और   निर्भयता   पूर्वक   पाखंडों   पर   प्रहार   किया।   

 उनकी   सबसे   बड़ी   विशेषता   एकत्व   की   भावना   का   समर्थन   है।   डॉ.   रामजीलाल   के   अनुसार   कबीर   ने   सामाजिक   विषमता   को   मिटाकर   एकत्व   की   स्थापना   का   निश्चय   किया।   कबीर   को   प्रगतिशील   कहने   में   हमें   कोई   संकोच   नहीं   होना   चाहिए।   पाँच   सौ - छः   सौ   वर्ष   पूर्व   कही   गई   बात   आज   भी   प्रासंगिक      सम - सामयिक   है।    कबीर   ने   व्यक्ति      समाज   को   एक   दूसरे   का   पूरक   माना   है।   इस   तरह   से   कबीर   भक्त,   योगी      दार्शनिक   होने   के   साथ - साथ   समाज   सुधारक   भी   थे।   कबीर   ने   समाज   सुधार   के   लिए   प्रबल   प्रयत्न   कर   तात्कालीन   समाज   को   अंधकार   से   निकालने   का   भरसक   प्रयास   किया।

इस   तरह   से   कबीर   ने   जीवन   के   सभी   पहलुओं   में   झांका   है।   उनकी   वाणियों   में   सम्पूर्ण   जीव   जगत   के   लिए   कल्याण   का   मार्ग   झलकता   था   जो   आज   भी   समाज   के   लिए   दर्पण   का   काम   करता   है।   कबीरदास   का   जीवन,   मानवीय   गुणों   से   ओत - प्रोत   था,   वे   सभी   जीवों   को   समदृष्टि   से   देखते   थे,   किसी   व्यक्ति   विशेष   की      तो   कभी   निन्दा   करते   थे   और      ही   स्तुति।   वे   उस   व्यक्ति      समाज   की   बुराईयों   की   खुलकर   निंदा   करते   थे,   जिनमें   उनको   आडम्बर,   पाखण्ड      ढोंग नजर   आता   था,   ऐसे   में   वो   खुलकर   बोलते   थे  -

हिन्दू   के   दया   नहीं,   मेहर   तुरक   के   नाहिं।

कहें   कबीर   दोनों   गए,   लख   चैरासी   माहिं।।

कबीर   लोक   कल्याणकारी   भावना   के   प्रबल   समर्थक   थे।   वे   अहंकारियों   का   विरोध   कर   निम्न   वर्गीय   लोगों   के   पक्षधर   थे।   वे   कहते   हैं 


दुर्बल   को      सताइये,   जाकी   मोटी   हाय।

मुई   खाल   की   सांस   सो,   लोह   भसम   हो   जाय।।

कबीर   जी   स्वयं   एक   गृहस्थ   थे,   इसलिए   वे   गृहस्थ      वैरागी   दोनों   को   समान   आदर   देते   थे  -

 बैरागी   विरक्त   भला,   गिरही   चित्त   उदार।

दूहूं   चूका   रीता   पड़े,   ताकूं   बार      पार।। 

कबीर   जी   पूरे   विश्व   को   एक   कुटुम्ब   मानते   हैं।   इसलिए   वे   पूरे   विश्व   का   ही   सुधार   चाहते   हैं  -

 सीलवन्त   सबसे   बड़ा,   सर्व   रतन   की   खानि

तीन   लोक   की   संपदा,   रही   सील   में   आनि।। 

अतः   हम   कह   सकते   हैं   कि   कबीर   अपने   समय   एवं   समाज   के   कटु   आलोचक   ही   नहीं   समाज   को   लेकर   स्वप्न   द्रष्टा   भी   थे।   उनके   मन   में   भारतीय   समाज   का   एक   प्रारूप   था   जिस   पर   वे   एक   विजन   के   साथ   काम   कर   रहे   थे।    वे   मुसलमान   होकर   भी   असल   में   मुसलमान   नहीं   थे।   वे   हिन्दू   होकर   भी   हिन्दू   नहीं   थे।   साधु   होकर   भी   योगी   नहीं   थे,   वे   वैष्णव   होकर   भी   वैष्णव   नहीं   थे।   16

इस   प्रकार   कबीर   का   अपने   समाज   के   प्रति   दृष्टिकोण   वैज्ञानिक   एवं   व्यवस्थित   था,   वो   किसी   प्रकारके   बाह्य   आडंबर   तथा   शोषण   के   खिलाफ   खड़े   थे।   इस   संदर्भ   में   हजारी   प्रसाद   द्विवेदी   ने   लिखा   भी   है   कि    कबीरदास   ऐसे   ही   मिलन   बिन्दु   पर   खड़े   थे,   जहाँ   एक   ओर   हिन्दुत्व   निकल   जाता   था,   दूसरी   ओर   मुसलमान,   जहाँ   एक   ओर   ज्ञान   निकल   जाता   है,   दूसरी   ओर   अशिवा,   जहाँ   एक   ओर   ज्ञान   भक्ति   मार्ग   निकल   जाता   है,   दूसी   ओर   योगमार्ग,   जहाँ   एक   ओर   निर्गुण   भावना   निकल   जाती   है,   दूसरी   ओर   सगुण   साधना।   उसी   प्रशस्त   चैराहे   पर   वे   खड़े   थे।   वे   दोनों   को   देख   सकते   थे   और   परस्पर   विरूद्ध   दिशा   में   गये   मार्गों   के   गुण   दोष   उन्हें   स्पष्ट   दिखाई   दे   जाते   थे।  


प्रश्न - 4 विनय पत्रिका के साहित्यिक महत्त्व की विवेचना कीजिए।

उत्तर 4

तुलसी साहित्य में विनय पत्रिका का महत्व

इकाई की रुपरेखा

1.0 उद्देश्य

1.1 प्रस्तावना

1.2 विनय पत्रिका

1.3 कवितावली

1.4 सारांश

1.5 बोध प्रश्न


1.1 प्रस्तावना

तुलसी की प्रामाणिक रचनाओं में विनय पत्रिका का महत्वपूर्ण स्थान है। 'विनय पत्रिका' भक्त प्रवर कवि कुल चूडामणि गोस्वामी तुलसीदास के मानस से प्रवाहित वह पावन सुर सरि है, जिसमें निमज्जित होकर प्रत्येक प्राणी अपने जीवन के निखिलकलुष का प्रक्षालन कर निर्मल हो जाता है। तुलसी की दो ही कृतियां विद्वानों में विशेष रूप से समादृत हैं- मानस विनय पत्रिका | विनय पत्रिका में 279 गेय पद हैं, जो विभिन्न शास्त्रीय राग-रागिनियों में निबद्ध हैं। तुलसी के हृदयस्थ,कोमल भाव विनय पत्रिका के रूप में मुखरित हो उठे हैं।

यह एक गीतिकाव्य है। इसकी रचना तुलसी ने एक सम्यक् ग्रंथ के रूप में की है। अधिकांश विद्वानों ने इसे तुलसी की अंतिम रचना स्वीकार किया है। उनका हृदय तत्कालीन राजनीति, समाज, धर्म तथा संस्कृति और साहित्य में फैली भीषण दुर्व्यवस्था और उच्छृंखलता से जब व्यस्थित हो उठा, तब कलयुग का अभिशाप समझ कर एक पत्री में उस व्यथा को तुलसी ने राजा राम के दरबार में उपस्थित होकर व्यक्त किया है। राम जगत् के नियन्ता हैं, अतः उनके दरबार में उनके पास अर्जी पहुंच जाये, इसलिए उनके दरबारी गणेश, सूर्य, शिव, देवी, गंगा, यमुना, काशी, चित्रकूट, हनुमान, लक्ष्मण, 

भरत, शत्रुघ्न, सीता आदि की स्तुति कर प्रार्थना (विनय) की गई है कि वे तुलसी की ओर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामका ध्यान आकृष्ट करें।

1.2 विनय पत्रिका

'विनय पत्रिका' पत्रात्मक शैली में लिखित गीतात्मक प्रबन्ध काव्य है। पत्र लिखने की प्राचीन भारतीय पद्धति है कि सर्वप्रथम श्री गणेशाय नमः लिखकर पत्र का आरंभ किया जाता है। श्री गणेश का अर्थ आरंभ करना शुरू करना, शुभ करना इसी तथ्य की ओर संकेत करता है। तुलसी ने अपनी 279 पदों वाली विनय पत्रिका का प्रारंभ श्री गणेश स्तुति से किया है -

गाइए गनपति जगबंदना संकर सुवन भवानी-नंदन । 

सिद्ध-सदन, गज-बदन, बिनायक । 

कृपा-सिंधु, सुंदर सब लायक मोदक-प्रिय, मुद्द-मंगन दाता। 

विधा-बारिधि, बुद्धि-विधाता। मांगत तुलसीदास कर जोरे। 

बसहिं राम सिय मानस मोरे ॥

कवि उनसे करबद्ध प्रार्थना बस एक कार्य के लिए कर रहे हैं कि राम-सिय उनके मानस में सदा निवास करें। तुलसी विनय की कला में निष्णात थे। अतः वे प्रभु राम की वंदना के पूर्व उनके सभी दरबारियों की वंदना कर लेना आवश्यक समझते हैं, क्योंकि यदि प्रभु खुश भी हो जाते और दरबारी नाखुश रहते तो सबके विरोध करने पर उनका आवेदन निष्फल हो जाता। इसलिए बड़ी चातुरी और सोच समझ से भक्त तुलसी ने इन सबको स्तुतियां एवं प्रार्थनाएं की, परन्तु सबसे एक ही याचना है उन्हें राम भक्ति मिल जाए। सूर्यदेव की स्तुति कता हुआ कवि कहता है

दीन दयालु दिवाकर देवा कर मुनि, मनुज सुरासुर सेवा ॥ 

हिम-तम करि केहरि करमाली। दहन दोष-दुःख दुरित रूजाली ॥ 

S कोक-कोकनद लोक प्रकासी तेज प्रताप रूप-रस रासी ॥ 

सारथि पंगु, दिव्यरथ-गामी। हरिशंकर विधि मूरति स्वामी ॥ 

वेद-पुरान प्रगट जस जागे। तुलसी राम भगति बर मांगे।

• शिव की प्रार्थना में भी तुलसी ने रामभक्ति ही मांगी है -

को जांचिये संभु तजि आन । दीन दयालु भगत आरतिहर, सब प्रकार समरथ भगवान । कालकूट-जूर जरत सुरासुर, निज पन लागि किये विष पान सेवत सुलभ उदार कलपतरू, पारवती पति परम सुजान। देहु काम रिपु राम चरन रति, तुलसीदास कहै कृपा निधान ।

सीता से विनय करता हुआ कवि स्पष्ट शब्दों में कहता है

कबहुक अंब, अवसर पाइ

मेरिऔ सुधि धाइबी, कछु करून कथा चलाई।

इसके उपरांत वह राम की दार्शनिक दृष्टि से स्तुति करता हुआ भावाभिव्यक्ति करता है। इस प्रकार तुलसी ने राम के दरबारी सभी देवी-देवताओं की स्तुति कर उन्हें अपने पक्ष में कर लिया और इसका परिणाम यह हुआ कि सबों ने एकजुट होकर राम से उन पर कृपा करने के लिए कहा और गरीब निवाज भगवान राम ने सबके देखते-देखते उस गरीब की बांह पकड़कर उसे अपना लिया -

विहंसि राम कयो सत्य है, सुधि में हूं लही है। मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथ की परीघुनाथ सही है।

इस कृति की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि इसमें तुलसी के जीवन से सम्बंधित अनेक घटनाएं भी यत्र-तत्र मुखरित हुई है। इसमें ज्ञान,भक्ति और वैराग्य की अजस्त्र धारा प्रवाहित है। 

इस संबंध में डॉ. श्यामसुन्दर दास का कथन है- भक्त का प्रेम और आत्म ज्ञान दिखाकर प्रभु की क्षमता और क्षमाशीलता का चित्र अपने हृदय में अंकित कर तथा भक्ति और प्रभु के अविच्छिन्न सम्बन्ध पर जोर देकर विनय पत्रिका को भक्तों का प्रिय ग्रंथ बना दिया।

‘विनय पत्रिका में तुलसी का भक्त हृदय पद पद पर भगवान की अनुकंपा पाने का पूर्ण विश्वास लेकर चलता है। इसलिए भक्त हृदय ने भगवान को दीन दयाल एवं पापों से मुक्ति दिलाने वाला माना है। कवि को भगवान की दया और क्षमाशीलता पर अटूट विश्वास है। इसीलिए इसमें भगवान में अनन्य विश्वास, गुणगायन तथा भक्ति का प्रतिपादन किया गया है। यह कृति शांत रस से युक्त है। नवधा भक्ति के आत्म निवेदन एवं दास्य भाव का इसमें पूर्ण प्रसार है। भक्ति की सातो भूमिकाएं अतीव अपूर्व सामंजस्य के साथ मुखरित हुई हैं। इस ग्रंथ में अनुभूति की तीव्रता अभिव्यंजना की प्रौढ़ता, गीतात्मक दृष्टि, अलंकारों का उचित प्रयोग और भाषा की समास पदावली अन्य सभी ग्रंथों से श्रेष्ठ है। आत्म निवेदन की दृष्टि से तो इसका महत्व बहुत अधिक माना गया है।

1.3 विनय पत्रिका के प्रमुख विषय

इस कृति के प्रतिपादित विषय को विद्वानों ने छ: भागों में विभाजित किया

1. प्रार्थना एवं स्तुति : विनय पत्रिका के आरंभिक 64 पदों में विभिन्न देवी-देवताओं यथा गणेश, सूर्य, शिव, देवी, गंगा, यमुना, हनुमान, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता, राम आदि की स्तुतियां की गई हैं।

2. स्थानों का वर्णन : तुलसी ने अपने आराध्य राम के प्रिय निवास स्थान चित्रकूट और काशी के माहात्य का विशेष रूप से गायन विनय पत्रिका में किया है। इसके 22 वें पद में काशी तथा 23 वें पदों में चित्रकूट की स्तुति की गई है तथा उनकी महत्ता पर प्रकाश डाला गया है।

3. मन के प्रति उपदेश : इस कृति में अनेक पद ऐसे भी हैं जिनमें तुलसी ने कलिसंत्रस्त मन को, जो अनेक विषयों में भटक रहा था, फटकारा है और उसे एक सुदृढ़ अवलम्बन ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया है। अन्त में कवि को राम के चरणों में अटल विश्वास हो जाता है और उसे परम शांति का अनुभव होता है। इसीलिए तुलसी को गाना पड़ता है

पतित पावन राम-नाम सो न दूसरो। •समिरि सामि भयो तुलसी सोउ सरो ॥

4. संसार की असारता : तुलसी की मान्यता है कि सम्पूर्ण संसार माया मोह एवं ममताभिभूत है एवं इनसे मुक्ति हरि कृपा से ही संभव है। यह संसार असत्य होते हुए भी सत्य सा भाषित होता है, यही भ्रम है। हरि उपासना से ही यह भ्रम दूर हो सकता है। सांसारिक माया मोह से मुक्ति प्राप्ति के लिए जीवात्मा को हरि कृपा का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।

तुलसी के शब्दों में

तुलसीदास हरि हरि गुरु करुणा बिनु, विमल विवेक न होई।

दिनु विवेक संसार घोर-निधि पार न पावै कोई ॥

5. आत्मग्लानि का विस्तार : इसमें तुलसी का हृदय आत्म ग्लानि से अभिभूत हो उठा है। आत्मग्लानि के इस उद्देलन से तुलसी की भक्ति भावना के पावन प्रसार के लिए एक मनोभूमि तैयार हो गई है। अपने विगत जीवन पर जब कवि दृष्टिपात करता है तो उसे ज्ञात होता है कि यौवन काल विषय वासनाओं से लिप्त रहा और कामिनी प्रेम में पूर्णतः निबद्ध रहे। इस संसार की क्षणभंगुरता एवं असारता का ध्यान कर कवि उन भावनाओं से मुक्ति प्राप्ति के लिए विनय एवं प्रार्थना करता है। इससे ज्ञान और वैराग्य की भावानाएं स्वतः उदभूत होने लगती है। अपने इन भावनाओं की अभिव्यंजना तुलसी ने विनय पत्रिका में जगह-जगह पर की है। साथ ही साथ तुलसी ने राम-नाम की महिमा का भी इस कृति में तन्यमतापूर्वक मधुर गायन किया है।

6. आत्मचरित संकेत : इस कृति में कवि ने आत्मग्लानि के कारणों पर प्रकाश डालते हुए प्रकारान्तर से कुछ ऐसे पदों का सृजन भी किया है जिनसे उनके जीवन के अनेक पक्षों बाल्यकाल, गरीबी, जाति, गुरू, वैराग्य, तत्कालीन परिस्थिति यश प्राप्ति आदि पर भी प्रकाश पड़ता है।

तुलसी की विनय पत्रिका की भूरिशः प्रशंसा प्रायः सभी विद्वानों ने मुक्त कंठ से की है। विनय पत्रिका पर लिखते हुए शिव सिंह सेंगर ने लिखा है अंत में विनय पत्रिका महाविचित्र भक्ति रूप प्रज्ञानन्द सागर ग्रंथ बनाया है। चौपाई गोस्वामी महाराज की जैसी किसी कवि से बन नहीं पायी है और न विनय पत्रिका के समान अद्भुत ग्रंथ आज तक किसी कवि महात्मा ने रचा।

मानस से भी विनय पत्रिका को श्रेष्ठ स्वीकारते हुए राम नरेश त्रिपाठी ने लिखा है- तुलसी दास को इस ग्रंथ के पद लिखने में जैसी सफलता मिली है, उस अनुपात से वह उनके और किसी ग्रंथ में नहीं है। मानस में खास कर अयोध्याकाण्ड में उनकी कवित्व शक्ति सावन-भादो की नदी की भांति उभड़ी हुई दिखाई पड़ती है। पर अरण्य काण्ड, किष्किंधा, सुन्दर और लंका काण्डों में वह घटते-पटते जेठ बैसाख की नदी की तरह छिछली हो गई है। कहीं-कहीं उसमें गड्ढे हैं, जिसमें कुछ अधिक जल जमा हुआ दीखता जरुर हैं पर विनय पत्रिका में आदि से अंत तक कवि की रसधारा एक-सी प्रवाहित है। उसमें उसके प्रचुर ज्ञान, गंभीर अनुभव भाषा और भाव पर उसके अबांध अधिकार का रोचक इतिहास कमल की तरह सर्वत्र विकसित मिलता है। बिनय पत्रिका में तुलसीदास ने प्रत्येक पद में मानव जीवन की कल्याण की ओर आकर्षित करने का प्रयास किया है। लोक हित की ऐसी प्रवल प्रेरणा हिन्दी के अन्य किसी कवि के अन्तःकरण में जब कभी जागरण नहीं हुई। विनय पत्रिका पर वियोगी हरि के विचार भी द्रष्टव्य है- विनय पत्रिका भक्ति काण्ड का एक परमोत्कृष्ट ग्रंथ है, अनुराग महोदधि का एक दिव्य रत्न हैं, भक्तों के सरस हृदय का तो यह ग्रंथ जीवन सर्वस्व है। भक्ति पंथ की सांगोपांग पद्धति इसमें दिखलाई गई है। इस प्रेम रत्न मंजूषा के भीतर सुरसिक जौहरी कैसे-कैसे विलक्षण रत्न पा सकते हैं, यह कहने की बात नहीं, अनुभव करने की है। राम कथा के मर्मज्ञ विद्वान डॉ. माता प्रसाद गुप्त ने विनय पत्रिका के सन्दर्भ में लिखा है-विनय पत्रिका का संसार के आत्म निवेदन साहित्य में अत्यंत उच्च स्थान माना जाता है।

तुलसी साहित्य के अधिकारी विद्वान डॉ. बचनदेव कुमार के शब्दों में इस प्रकार तुलसी की विनय पत्रिका कलियुग को सताए गए आर्त की वह पत्रिका है, जो लोक-लोकों के पति स्वयं भगवान की सेवा में उपस्थित की गई है। ऐसे उन्नत उदात्त ध्येय से लिखी पुस्तक संसार में अनन्दित है।


1.3 कवितावली

गोस्वामी तुलसीदास की प्रामाणिक रचनाओं में कवितावली भी एक है। इसके नाम ही स्पष्ट है कि यह कवित्तों की अवली है। इसमें कवित्त-सबैगा छंदों के माध्यम से रामकथा के प्रमुख प्रसंगों का वर्णन किया गया है। इसकी कथा भी मानस की कथा की भांति 7 काण्डों में विभक्त हैं। कांडानुसार इसकी छद संख्या निम्मपद है

काण्ड                       छंद संख्या

बालकाण्ड                  22

अयोध्याकाण्ड             28

अरण्यकाण्ड                 1

किस्किन्दा कांड             1

सुंदर कांड                  32

लंका कांड                  58

उत्तरकाण्ड                183

कुल-                         325

अर्थात इसमें कुल 325 छंद हैं। इससे स्पष्ट होता है कि इस कृति की रचना भी एक समय में एक सुनिश्चित योजना के अनुसार नहीं हुई, अपितु मुक्तक रूप में छंदों का प्रणयन होता रहा और तदुपरान्त किसी भक्त ने उन्हें काण्डों के अनुसार विभक्त एवं व्यवस्थित कर कृति का रूप दे दिया, अन्यथा तुलसी स्वयं इस अनुपात में कांडों का विभाजन कदापि नहीं करते। कतिपय विद्वानों का यह भी कहना है कि तुलसी ने कवितावली में मार्मिकता का ध्यान ही अधिक रखा है, कथा कहने का नहीं। यही कारण है कि कतिपय काण्ड एक ही पद्य में समाप्त हो गए है तो कतिपय में अनेक पद्यों का समायोजन किया गया है।

कवितावली की रचना एक समय में नहीं हुई। डॉ. श्यामसुन्दर दास का मत है कि कवितावली की कथाभार और सीता स्वयंवर का विषयक कवित्त सं. 1628 और 1631 के बीच रचे गए और शेष भार संवत् 1669, उसके पश्चात् रामनरेश त्रिपाठी ने कवितावली का रचनाकाल संबत 1615 से 1680 के बीच स्वीकार किया है। कतिपय विद्वान इसका रचना काल 1650 से 1980 के बीच स्वीकारते हैं। डॉ. माता प्रसाद गुप्त के मतानुसार कवितावाली कविकी अंतिम और अपूर्ण रचना है। उनके अनुसार इसका रचना-काल सं. 1661 से 1680 के बीच माना जाना चाहिए। वस्तुतः कवितावली के कवित्तों से ही किया और उसका समापन अभिप्राय यह कि 1980 में हुआ। अतः रचना-काल की दृष्टि से इसका फलक सर्वाधिक स्फीत है।

इस कृति में विषय का बैबिद्य एवं बिस्तार है। यह केवल मानस तक ही सीमित नहीं है। इसने उत्तराकाण्ड में कृष्ण चरित सम्बन्धी भ्रमर गीत प्रसंग के तीन कवित्व (7.133-135) भी संकलित है। अनेक देवी देवताओं की स्तुतियां भी हैं। राजा राम के आचरण की दो घटनाएं ध्यानाकर्षक एवं महत्त्वपूर्ण है। पहली घटना है राम के द्वारा सीता का निर्वासना इसकी चर्चा कवि ने गीतावली और रामाज्ञा प्रश्न में भी है, किन्तु मानस आदि में नहीं दूसरी घटना है राम के द्वारा अपने प्रिय अनुज लक्ष्मण का परित्यागा इसका वर्णन तुलसी ने केवल कवितावली में ही किया है

तीय सिरोमनि शीय तजी, जेंहि पावक की कलुसाई दही है। धर्म धुरंधर बंधु तज्यो, पुरलोगनि की विधि बोलि कही है।

1.4 सारांश

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि विनय पत्रिका एक दीनहीन भक्त कवि की ऐसी पत्रिका है जिसमें उसने अपनी हीनता दीनता एवं आत्मनिवेदनन सागर संसार के कल्याणार्थ राम के दरबार में उड़ेल दिया है! सचमुच तुलसी की रचनाओं में विनय पत्रिका का एक ऐसा नवनीत है जो सभी रचनाओं का सार लेकर निर्मित हुआ है और जिससे संसार युग-युग तक लाभान्वित एवं उपकृत होता रहेगा।


1.5 बोध प्रश्न

1. विनय पत्रिका की कथावस्तु प्रस्तुत कीजिए।

2. विनय पत्रिका के सम्बन्ध विभिन्न आचार्यों के मत प्रस्तुत कीजिए।

3. कवितावली का परिचय दीजिए।




प्रश्न-5 तुलसीदास को लोकवादी किसने और क्यों कहा है?

उत्तर नंबर 5

लोकवादी तुलसीदास

तुलसीदास को लोक वादी कवि हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि 'विश्वनाथ त्रिपाठी जी' ने अपनी पुस्तक 'लोकवादी तुलसीदास' में किया है। मैंने इस पुस्तक को पढ़ा है और इसी विषय को ध्यान में रखते हुए मैं इस प्रश्न का उत्तर लिख रही हूं।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि तुलसीदास और उनकी कविता पर हमारे समय के महत्वपूर्ण आलोचक 'विश्वनाथ त्रिपाठी ने 'राधाकृष्ण प्रकाशन' से अपनी पुस्तक 'लोकवादी तुलसीदास' प्रकाशित की है, एक नए 'ढंग' और 'कहन' से विचार-विमर्श करती है। विश्वनाथ त्रिपाठी आधुनिक हिन्दी आलोचना जगत में एक ऐसा नाम हैं जिनके अभाव में 'आलोचना' और 'तुलसीदास' पर बात करना बेईमानी - सा लगता है - अतः दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि विश्वनाथ त्रिपाठी और तुलसीदास एक दूसरे के पर्याय हों।

हम इस बात को बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि समय उस व्यक्तित्व को हमेशा याद रखता है, जो अपने 'समय', 'समाज', 'देश' और 'काल' के सच को सच की तरह बड़ी ही सजगता और सतर्कता से लिखता व बुनता है। 'लोककंठ', 'लोकचित्त' और 'लोकहृदय' में गहराई से रचे-बसे, आठों पहर राम के रहे और राम नाम की महिमा का गुणगान लोकभाषा अवधि में करने वाले 'तुलसीदास' मध्यकाल (भक्तिकाल) के एक ऐसे ही लोकप्रिय व भक्त कवि हैं।

हिन्दी के विभिन्न साहित्यालोचकों-विद्वानों ने, जैसे–‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल', 'रामविलास शर्मा’ तथा ‘उदयभानु सिंह' आदि ने तुलसीदास, उनकी कविता और उनके युग को अपने विभिन्न दृष्टिकोणों से समझने समझाने का प्रयास किया है। 

इस संदर्भ में क्रमश: ‘त्रिवेणी’, ‘गोस्वामी तुलसीदास और मध्यकालीन भारत', 'भारतीय सौन्दर्यबोध और तुलसीदास', 'तुलसी साहित्य के सामंत विरोधी मूल्यों', एवं 'तुलसी' नामक पुस्तकों-निबंधों को बानगी के तौर पर देखा जा सकता है, बहरहाल।

विश्वनाथ त्रिपाठी के कहे-लिखे की एक लंबी लिस्ट है जिसमें 'लोकवादी तुलसीदास' एक ऐसी क़िताब है जिसके कार उन्हें एक सभ्य समाज की दुनिया में एक लंबे समय तक याद किया जाएगा। ऐसा कहने और मानने के पीछे कई कारण हैं. 'लोककंठ', 'लोकचित्त' और 'लोकहृदय' में बहुत गहरे रचे-बसे कवि 'तुलसीदास' और उनकी कविता को विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने समय और समाज के आईने में, उत्तरभारत की जनता की आशा-आकांक्षा और उसकी संस्कृति के आईने में देखने का प्रशंसा-भरा काम किया है। यदि कहा जाए की आज जब तुलसीदास चारों और से घिरे हुए नज़र आते हैं तो ऐसे में विश्वनाथ त्रिपाठी' की यह पुस्तक एक रौशनी बनकर उभरती है तो अतिशयोक्ति न होगा।

इस क़िताब के आरंभ में, भूमिका के बाद दो पत्र दिए गए हैं।

पहला पत्र हिन्दी के मानवतावादी आलोचक कहे जाने वाले ‘आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी' का है और दूसरा पत्र हंस के यशस्वी संपादक और हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक,  'राजेन्द्र यादव' का है। जो पुस्तक को पढ़ने हेतु पाठकों में जिज्ञासा पैदा करने का महत्वपूर्ण काम करते हैं। 


लगभग डेढ़ सौ पृष्ठ की (मात्र १५८ पृष्ठ की) इस क़िताब को लेखक ने चार भागों में विभक्त किया है - 'तुलसी के राम', 'तुलसी का देश', 'कलियुग और रामराज्य', 'तुलसी की कबिताई'। 

यह पुस्तक उन सभी मुद्दों पर विस्तार से बात करती है जो अब तक लोगों की पहुंच से बहुत दूर थे अर्थात् उनकी दृष्टि से ओझल थे। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि तुलसीदास पर लिखी गई अपने तरीक़े की यह एकमात्र पुस्तक है जो तुलसीदास संबंधी बहुत सी ग्रंथियों को तोड़ने का काम करती है भ्रांतियों को तोड़ने का काम करती है।

ये तुलसीदास को 'मानवीय करुणा' का अनन्यतम, अद्वितीय एवं अप्रतिम कवि मानते हुए 'लोकवादी तुलसीदास' के चौथे और अंतिम अध्याय में लिखते हैं कि "तुलसी का काव्य मध्यकालीन उत्तर भारत का सबसे प्रामाणिक संदर्भ-कोश है। उसमें तुलसी द्वारा देखा और समझा हुआ भारत मौजूद है। इसमें उस समय की विषमताएं, अच्छाइयां- बुराइयां, सुख-दुःख भी हैं और उसकी आशा-आकांशा भी मौजूद है। " 

विश्वनाथ त्रिपाठी आगे लिखते हैं..."जिस जीवन को तुलसी ने शब्दों में बांधकर चित्रित किया है वह इतना विविध और पूर्ण हैं कि उनका काव्य मध्यकालीन उत्तर भारत का सबसे प्रामाणिक जीवंत विश्वकोश बन गया है। उनकी कविताएँ सामान्य लोगों को इतनी याद हैं कि वे हिन्दी भाषा का मुहावरा बन गई हैं। हिन्दी के बीस करोड़ भाषियों में (संख्या आज बीस करोड़ से ज़्यादा है) शायद ही ऐसा कोई हो जिसके बोलने या लिखने में तुलसी की कोई पंक्ति या कोई टुकड़ा न शामिल हो जाता हो। तुलसी से अधिक लोकप्रिय कवि की कल्पना दुष्कर है। अर्थात बहुत कठिन है।” विश्वनाथ त्रिपाठी के इस कथन से इत्तेफाक़ रखते हुए सहज ही यह माना और कहा जा सकता है कि तुलसीदास वास्तव में मध्यकाल के एक ऐसे 'निराले' और 'अनूठे' कवि हैं जिनके मुख से लोकमनस की चौपाई को सुन्दर स्वरों में बंधकर फूट पड़ना कोई आश्चर्यचकित करने वाली बात नहीं है। यह बड़ा दिलचस्प है कि विश्व में सबसे अधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध कवियों में शुमार तुलसीदास अपने काव्य में लोक के 'मुहावरों', 'कहावतों', 'रीति-रिवाजों', 'दुःख-दर्द' और 'आशा-आकांक्षा' को नहीं भूलते। यदि यह कहा जाए की तुलसीदास लोक में विराजमान हैं और लोक तुलसीदास में तो कहना गलत न होगा। तुलसी का काव्य भक्तिकाल का ऐसा साहित्य है जिसे उत्तर भारत की संस्कृति का बाबा कहा जा सकता है। विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा बड़े ही मनोयोग से लिखी गई ‘लोकवादी तुलसीदास' शीर्षक यह पुस्तक इन सभी बातों का विस्तार से वर्णन करती है-दीदावर चाहिए।

कई लोगों को यह भ्रांति हो सकती है की लेखक ने सिर्फ़ और सिर्फ़ तुलसीदास का स्तुति-गान किया है. बल्कि, ऐसा नहीं है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने तुलसी के उन पक्षों पर भी विस्तार से प्रकाश डाला है जो उन्हें - वर्ण व्यवस्था के क़रीब लाते हैं। 'तुलसी की कबिताई' का विश्लेषण करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है- "तुलसी वर्ण-व्यवस्था के कट्टर समर्थक कवि हैं। उनका यह रूप निहायत अनुदार है. वह शूद्रों के प्रति वह विचार नहीं अपना सकते थे, जैसा कि कबीर आदि निर्गुण संतों ने अपनाया है।" विश्वनाथ त्रिपाठी आगे लिखते हैं—“उन्होंने वर्ण-व्यवस्था का जो समर्थन किया है, वह उनके चिन्तन की बहुत बडी कमज़ोरी है। लेकिन उनके काव्य का अधिकाँश अमर और लोकमंगलकारी है।" साथ ही इस पुस्तक का जो शीर्षक है 'लोकवादी तुलसीदास' वह कुछ जमता नहीं या यूं कहें तो बेहतर होगा कि गले नहीं उतरता वह इसलिए क्योंकि, हम इस बात से अच्छी तरह परिचित हैं कि मध्यकाल का कोई भी कवि 'वादी' नहीं है। बात करें तुलसीदास की तो उन्हें 'लोकवादी' नहीं बल्कि, 'लोक-मर्मज्ञ' 'लोक-ज्ञाता' कहना ज़्यादा उचित रहेगा जिसकी ओर प्रतिष्ठित आलोचक 'आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी' भी इशारा करते हैं, बहरहाल।

तुलसीदास की एक बहुत ही विवादित चौपाई 'ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी' को सुन-सुनकर हम हमेशा से उनको खलनायक बनाने पर आमादा रहे हैं, आज भी बार-बार विभिन्न मंचों से उनकी फ़ज़ीहत करते हैं। या यूं कहा जाए तो ज़्यादा अच्छा होगा कि तुलसीदास के काव्य के नाम पर सिर्फ़ इसी एक चौपाई तक सीमित रहने वाले हम यह मान लेते हैं, बस यही तुलसी की कविता का जैसे सार है। इससे आगे कुछ और नहीं। शायद वह यह भूल जाते हैं की तुलसीदास ने अपनी कविता में अपने समय के सच को लिखा है। 

जो किसान है उनके पास खेती नहीं है, भिखारी को कोई भीख नहीं देता, वणिक या व्यापारी का व्यापार बंद है और चाकर को चाकरी नहीं न चाकर को चाकरी नहीं मिलती-'खेती न किसानको, भिखारीको न भीख, बलि/ बनिकको बनिज, न चाकरको चाकरी"। वह यह भूल जाते हैं कि तुलसी वही कवि हैं जो कहते हैं 'जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी सो नृप अबसी नरक अधिकारी' अर्थात जिस राजा के राज्य में प्रिय प्रजा दुःखी है, वह अवश्य ही नरक का अधिकारी है। और जो कहते हैं - 'बेधर्म दूरि गए, भूमिचोर भूप गए' अर्थात कराल कलिकाल में राजा भूमि-चोर हो गए हैं, वे प्रजा की भूमि हड़प लेते हैं। मध्यकाल में तुलसी ही वह कवि हैं जो कहते हैं- 'जद्यपि जग दारुन दुःख नाना / सब तें कठिन जाति अवमाना।' अर्थात यद्यपि संसार में अनेक प्रकार के दारुन दुःख हैं लेकिन सबसे बड़ा दुःख जाति का दुःख है, जाति-अपमान सबसे बड़ा दुःख है।

अत: आज ज़रूरत है दिलों से मैल निकालकर इस कठिन दौर में तुलसी के पास जाने की और बेरुखी में 'अमृत-सरोवर' जैसे उनके काव्य को पढ़ने-पढ़ाने, सुनने-सुनाने की। इस संदर्भ में 'लोकवादी तुलसीदास' एक रास्ता हो सकती है तुलसीदास के कवि-कर्म और उनकी कविता के मर्म को समग्रता में समझने का।

'लोकवादी तुलसीदास' पाठकों को तुलसी संबंधी पूर्वाग्रह से बाहर निकालने का एक सफ़ल कार्य करती है। यह एक पठनीय एवं संग्रहणीय पुस्तक है. वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने जिस 'कहन' और 'आलोचनात्मक ढंग' से इस पुस्तक को रचा-बुना है इसके लिए वह अवश्य ही हृदय से प्रशंसा और बधाई के पात्र हैं।

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