बिदेसिया’ के विकास एवं लोकनाट्य

ये लोक-नाटक अपनी विषयवस्तु के आधार पर भी दो स्पष्ट धाराओं में विभाजित किये जाते हैं – 1. धार्मिक-पौराणिक विषयवस्तु से सम्बंधित लोक-नाटक एवं 2. सामाजिक एवं राजनैतिक संदेशों से युक्त लोक-नाटक |

इन सामाजिक-राजनैतिक सन्देश-प्रधान लोक रंग-शैलियों में ‘बिदेसिया’ सर्वाधिक प्रसिद्ध रहा है | मुख्य रूप से बिहार में उत्पन्न इस लोक नाट्य-रूप में नृत्य, संगीत और अभिनय का मणिकांचन संयोग मिलता है | यद्यपि इसके प्रवर्तक गुद्दर राय माने जाते हैं तथापि इसको प्रतिष्ठित करने का श्रेय ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर को ही दिया जा सकता है |

‘बिदेसिया’ के विकास एवं लोकनाट्य के क्षेत्र में प्रयोग की दिशा में भिखारी ठाकुर ने अनेक क्रांतिकारी प्रयोग किये | उन्होंने शास्त्रीय रंगमंच की शैलियों के मंगलाचरण, सूत्रधार आदि पक्षों का भी लोक-नाट्य की प्रवृत्ति के अनुरूप परिवर्तन-परिवर्धन किया | यहीं नहीं लोक-नाटकों में ‘मुक्त मंच’ की अवधारणा को विकसित करने का श्रेय भी बहुत हद तक भिखारी ठाकुर को जाता है | लोकनाट्य की एक स्वतंत्र विधा के रूप में बिदेसिया को स्थापित करने में उनको अनेक संघर्ष करना पड़ा | चूंकि भिखारी ठाकुर स्वयं लोक-अंचल से सम्बन्ध रखते थे, अतः लोक-जीवन पर उनकी गहरी पकड़ ने उन्हें ग्रामीण-जीवन की समस्याओं को समझने में एक विशेष अंतर्दृष्टि प्रदान की और यही उनके नाटकों की सफलता का कारण बना | 

उन्होंने बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक ‘बिदेसिया’ का सूत्रपात एक स्वतंत्र लोकविधा के रूप में कर दिया था | यद्यपि उनके ग्रंथों की संख्या 30 मानी जाती है, जिनमें बहरा बहार, बिदेसिया, कलियुग प्रेम, बेटी बियोग(बेटी बचवा), पुत्र बधू, गंगा-स्नान, भाई-विरोध, विधवा-विलाप , गबरघिचोर आदि प्रमुख हैं | इनमें भी ‘बिदेसिया’ नाटक अपनी लोकप्रियता एवं प्रासंगिकता के कारण विशेष एवं महनीय लोक-नाट्य बन गया है |

चूंकि लोक-मानस में धर्म की गहरी पैठ होती है, अतः भिखारी ठाकुर के नाटकों में भी बहुदेववाद की प्रवृत्ति के दर्शन सहज ही होते हैं | साथ ही, लोकनाट्यों के प्रमुख उद्देश्य मंचन की दृष्टि से भी इनके नाटक सफल कहे जा सकते हैं | क्योंकि लोक-नाटकों में स्थान एवं दर्शकों की रूचि के अनुकूल नाटक को छोटा-बड़ा किया जा सकता है | एक और बात यह है कि भिखारी ठाकुर जिस स्थान पर नाटक खेला जा रहा हो, उस स्थान-विशेष की समस्याओं को भी बात-बात में उघाड़ते चलते हैं | ‘लचीलेपन’ की यह कला लोक-नाटकों में ही देखी जा सकती है |

‘बिदेसिया’ नाटक की बात की जाएँ तो यह नाटक भोजपुरी एवं पूर्वांचल के अंचल के सामाजिक यथार्थ का जीवंत दस्तावेज माना जा सकता है | चूँकि भिखारी ठाकुर ने स्वयं रामलीलाओं में कार्य किया था और साथ ही बंगाल एवं ओड़िसा की ‘जात्राओं’ से भी वे विशेष रूप से प्रभावित थे, अतः उनके नाटकों में संस्कृत की नाट्यपरंपरा के साथ ही इन लोक रंग-शैलियों का भी विशेष प्रभाव है | उन्होंने भारतीय समाज में विवाह की महत्ता एवं स्त्री –जीवन की पीड़ा को भी अपने नाटकों के माध्यम से लोक के सम्मुख रखा | 1957 ई० के विप्लव के पश्चात् देश के आम-जन की स्थिति बद से बदतर हो गयी | जीविका और रोजी-रोटी की तलाश में उत्तर प्रदेश एवं बिहार के बहुत से युवक कलकत्ता की ओर पलायन करने लगे | ऐसे ही एक युवक (बिदेसिया) की प्रतीक्षा में गाँव में रह रही उसकी ब्याहता के मर्मस्पर्शी विरह का वर्णन भिखारी ठाकुर ने अपने इस नाटक में किया है | इस वियोग-वर्णन में भोजपुरी समाज में प्रचलित बिरहा, कजरी आदि लोकगीतों और धुनों का इस नाटक में सुष्ठु प्रयोग मिलता है |

यह एक ज्ञात तथ्य है कि लोक-नाटकों में कथानक एवं पात्र अधिक महत्वपूर्ण होते हैं न कि मंच-व्यवस्था, वेश-भूषा, पर्दे आदि | तथापि भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया’ की रंग-परिकल्पना में मंच को विशिष्ट स्थान दिया है | ‘‘बिदेसिया’ की रंग शैली लोक प्रचलित संसाधनों के बेहतर प्रबंधन को लेकर भी खासी चर्चित रही | मंच मुक्ताकाशी के रूप में प्रायः गाँव के किसी चौराहे या मंदिर के किसी प्रांगण में बांस के खम्भों से दस-बारह फुट ऊँचा बनाया जाता है | यह मंच चौकियों को जोड़कर बनाया जाता है जो चारों ओर से खुला होता है | मंच साधारण सज्जा वाला होता है और इसकी व्यवस्था में बैकग्राउंड व सिनयरी नहीं होते | ग्रीनरूम के रूप में कोई अलग तम्बू (टेंट) मिल जाता है तो ठीक है, वरना तथाकथित मंच या रंगभूमि पर ही रूप-सज्जा और परिधान परिवर्तन हो जाता है | पेट्रोमैक्स और डे-लाइट जलाकर स्थान-स्थान पर टांग दिए जाते हैं | यही खुला मंच भोजपुरी लोकनाट्य ‘बिदेसिया’ की नींव रखता है |”5

इस नाटक के पात्रों की वेशभूषा भी तत्कालीन ग्रामीण अंचल के लोगों के पहनावे के समान तामझाम रहित सहज सामान्य भारतीय वेशभूषा होती है | मुख्य रूप से पुरुष पात्र जहाँ धोती-कुर्ता पहनते हैं, वहीं स्त्रियों की वेशभूषा साधारणतः लहंगा-चोली एवं चुनरी होती है | एक ही व्यक्ति द्वारा कई-कई पात्रों का अभिनय किया जाता है | अन्य विशेष उल्लेख योग्य तथ्य यह भी है कि पुरुष पात्र ही स्त्री की भूमिका भी करते हैं | भिखारी ठाकुर ने स्वयं भी कई बार स्त्री-रूप में अभिनय किया है |

भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया’ की रंग शैली में गीत, संगीत एवं नृत्य को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया है | इन तत्वों के समावेश से नाटक में आद्यंत एक पद्यात्मकता बनी रहती है | इन लोक-गीतों एवं नृत्य के माध्यम से जहां अंतराल के द्वारा दृश्य-परिवर्तन भी कर लिया जाता है, वहीं लोक-धुन की मधुर लय वियोग की पीड़ा की भी दर्शकों एवं श्रोताओं को अनुभूति करा जाती है |

इस लोक-नाट्य की एक और विशेषता यह है कि इसमें पहले तो मंगलाचरण की परंपरा का निर्वाह करते हुए कीर्तन की शैली में देव-स्तुति की जाती है, तत्पश्चात समाज में व्याप्त समस्याओं के सुधार की ओर ध्यान आकृष्ट करवाया जाता है | जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि तत्कालीन भारतीय समाज, उसमें भी विशेषतः ग्रामीण अंचलों में धर्म की जड़ें अत्यंत गहरी थीं | अतएव, ईश्वर के भजन-कीर्तन द्वारा ही लोगों को अंध-विश्वास, कुरीतियों के विषय में जागरूक किया जा सकता था | और वही कार्य भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया’ एवं अपने अन्य नाटकों के माध्यम से किया |

अपने नाटकों को ‘तमाशा’ की संज्ञा से अभिहित करने वाले भिखारी ठाकुर द्वारा पुनःजीवित ‘बिदेसिया’ रंग शैली वस्तुतः नृत्य, संगीत एवं अभिनय का मणिकांचन संयोग प्रस्तुत करता है | इसमें जहां एक ओर सदियों से पीड़ित-दलित समाज की समस्याओं का चित्रण है, वहीं दूसरी ओर उन समस्याओं का समाधान भी | साथ ही, लोकधर्मी नाटकों की सोंधी महक भी इस रंग-शैली में आद्यंत विद्यमान है, जो आज भी हृषिकेश सुलभ जैसे रचनाकारों को अपनी नाट्य-कृति (अमली) को इस विधा में लिखने को प्रेरित करता है | अस्तु ‘बिदेसिया’ भोजपुरी या पूर्वांचली ही नहीं अपितु संपूर्ण भारतीय लोक-रंग परंपरा की अमूल्य धरोहर है|

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