कोर्स : एम.ए. (हिंदी), भारतीय काव्यशास्त्र, NC पेपर 105 यूनिक पेपर कोड: 120501105

कोर्स : एम.ए. (हिंदी) NC 
पेपर 105 
यूनिक पेपर कोड: 120501105

शीर्षक: भारतीय काव्यशास्त्र

सेमेस्टर : 1 (2022)

पूर्णांक 70

समय :3 घंटे

आवश्यक निर्देश:आवश्यक निर्देश:

1. उत्तर के पूर्व प्रश्नों को अच्छी तरह से समझने का प्रयास करें।

2 छह प्रश्नों में से किन्ही चार प्रश्नों के उत्तर दें।

3. प्रत्येक प्रश्न के अंक समान है।

प्रश्न- 1 रीति सम्प्रदाय संबंधित विभिन्न भारतीय काव्यशास्त्रीय मतों का विवेचन कीजिए।

प्रश्न-2 ध्वनि की प्रमुख स्थापनाओं पर विचार कीजिए |

प्रश्न-3 औचित्य सिद्धांत किसे कहते है? उसका मूल्यांकन कीजिए।

प्रश्न-4 शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए रस सिद्धांत की चितन परंपरा पर प्रकाश डाल

प्रश्न-5 काव्य हेतु पर विचार कीजिए।

प्रश्न- 6 वक्रोक्ति सिद्धांत का परिचय देकर उसके प्रमुख भेदों को बताइए।

प्रश्न-3 औचित्य सिद्धांत किसे कहते है? उसका मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर

औचित्य सिद्धांत व्युत्पत्ति और अर्थ

औचित्य शब्द का उद्भव उचित शब्द से हुआ है। ‘उचितस्य भावम् औचित्य'

अर्थात जो वस्तु जिसके अनुरूप होती है उसे उचित कहते हैं। औचित्य संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य क्षेमेंद्र हैं।

औचित्य-सिद्धान्त के प्रवर्तन का श्रेय 'औचित्यविचारचर्चा' नामक ग्रन्थ के रचयिता क्षेमेन्द्र को दिया जाता है, पर वस्तुतः यह इसके प्रवर्तक न होकर व्यवस्थापक हैं। 

इनसे पूर्व भरत, भामह, दण्डी, रुद्रट और विशेषतः आनन्दवर्धन और उनके बाद कुन्तक और महिमभट्ट के ग्रन्थों में इस तत्त्व पर प्रसंग-वंश पर्याप्त संकेत मिल जाते हैं।

क्षेमेन्द्र काशी के निवासी थे। इन्होंने 11 वीं सदी में औचित्य संप्रदाय की स्थापना की। इनकी पुस्तक 'औचित्यविचार चर्चा' है।

औचित्य का शाब्दिक अर्थ उचित का भाव है।

क्षेमेन्द्र के अनुसार औचित्य काव्य का अंतरंग तत्व है। इसके बिना अन्य कोई गुण या विशेषता महत्वहीन हो जाती है। क्षेमेंद्र लिखते हैं कि

अनुचित अलंकार प्रयोग, अनुचित गुण प्रयोग, अनुचित रस प्रयोग, अनुचित रीति प्रयोग काव्य के सौष्ठव को नष्ट कर देता है ।

औचित्य के संबंध में क्षेमेन्द्र का विचार

अलंकारस्त्वालंकारा गुणा एव गुणा सदा औचित्यम् रस शिद्धम् स्थिरम् काव्यस्यैव जीवितम

अर्थात अलंकार और गुण दो अलग-अलग तत्व है पर रस सिद्ध काव्य की स्थिरता औचित्य तत्व पर ही निर्भर करती है। अतः औचित्य काव्य का प्राण है ।

औचित्य-सिद्धांत और मूल्यांकन

औचित्य-सिद्धांत के प्रवर्तक का श्रेय क्षेमेन्द्र को दिया जाता है किन्तु वस्तुतः यह इसके प्रवर्तक न होकर व्यवस्थापक हैं। इनसे पूर्व भी भरत, भामह, दण्डी, रूद्रट और आनन्दवर्धन के ग्रन्थों में इस तत्व पर प्रसंगवंश यत्किंचित संकेत मिल जाते हैं। तथापि औचित्य की कल्पना साहित्य-जगत में बहुत ही प्राचीन काल से चली आ रही थी।

★ भरत ने नाटकीय प्रसंग में पात्र, प्रकृति, वेश-भूषा, भाषा आदि के औचित्य का विस्तृत प्रतिपादन अपने नाट्यशास्त्र में किया है। इस प्रसंग में भरत का यह श्लोक बडा़ ही सारगर्भित है-

'अदेशजो हि वेशस्तु न शोभां जनयिष्यति। मेखलोरसि बन्धे च हास्यायैव प्रजायते'।।

अर्थात् जिस देश का जो वेश है, जो आभूषण जिस अंग में पहना जाता है उससे भिन्न देश में उसका विधान करने पर वह शोभा नहीं पाता। यदि कोई पात्र करधनी को अपने गले में और हाथ में पहने तो वह उपहास का ही पात्र होगा। करधनी का स्थान है कमर। वहीं पहनने पर होती है उसकी उचित शोभा। अतः अभिनय करते समय वेष आयु के अनुरूप होनी चाहिए।

★ भामह का यह कथन भी औचित्य-तत्व की ओर संकेत करता है कि कोई असाधु वस्तु भी आश्रय के सौन्दर्य से अत्यन्त सुन्दर बन जाती है, जैसे- काजल तो स्वभावत: कला होता है, किन्तु सुन्दर स्त्री के नेत्रों में अंजित हो जाने पर उसकी शोभा बढ़ जाती है।

किंचिदाश्रयसौन्दर्यात् धत्ते शोभामसाध्वपि। कान्ता-विलोचन-न्यस्तं मलीमसमिवाञ्जनम्॥

★ दण्डी ने देशगत, कालगत आदि विरोध नामक काव्य-दोषों के सम्बन्ध में यह कहा कि कवि के कौशल से ये विरोध दोषत्व छोड़कर गुण भी बन जाते हैं। यानिकि यदि कोई कवि अपने काव्य में इन दोषों को यथावश्यक रूप में औचित्यपूर्वक , जानबूझकर, सन्निविष्ट कर देता है तो वहां ये दोष गुण बन जाते हैं। सम्भवत: इसी प्रकार की अनेक मान्यताओं के आधार पर, आगे चलकर, आनन्दवर्धन ने नित्य और अनित्य दोष की व्यवस्था की थी।

दूसरे शब्दों में, यदि कोई कवि अपने काव्य में इन दोषों को यथावश्यक रूप में औचित्यपूर्वक, जानबूझकर, सत्रिविष्ट कर देता है तो यहाँ ये दोष गुणा कर जाते हैं। सम्भवतः इसी की अनेक मान्यताओं के पर आगे चलकर आनन्दवर्धन ने नित्य और अनित्य दोष की व्यवस्था की थी कि 'श्रुतिकटु' आदि दोष काव्य में अनित्य हैं तो 'च्युतसंस्कृति' आदि दोष काव्य में नित्य है। इस प्रकार की धारणाएँ भी औचित्य की ओर संकेत करती हैं।

★ रूद्रट ने संभवत: सर्वप्रथम 'औचित्य' शब्द का प्रयोग करते हुए कहा है कि काव्य में अनुप्रास-वृत्तियों का प्रयोग औचित्य का ध्यान रखते हुए करना चाहिए।

★ आनन्दवर्धन ने अलंकार, गुण, संघटना प्रबन्ध, रीति तथा रस के औचित्य की काव्य में पूर्ण गरिमा का अवगाहन किया। औचित्य के सर्वमान्य आचार्य आनन्दवर्धन ही हैं। जिन्होंने रसभंग की व्याख्या के अवसर पर यह मान्य प्रतिपादित किया था-

अनौचित्याद् ॠते नान्यद् रसभंगस्य कारणम्। औचित्योपनिबन्धस्तु रसस्योपनिषद् परा।।

औचित्य ही रसभंग का प्रधान कारण है। अनुचित वस्तु के सन्निवेश से रस का परिपाक काव्य में उत्पन्न नहीं होता। अतः औचित्य का समावेश ही रस का परम रहस्य है।

महिमभट्ट ने काव्य-दोष को 'अनौचित्य' का ही नाम दिया और इस कार औचित्य को प्रकारान्तर से महत्त्वपूर्ण स्थान दिया।

★ क्षेमेन्द्र – अभिनव गुप्त के प्रमुख शिष्य क्षेमेन्द्र ध्वनिवादी आचार्य थे। जिन्होंने औचित्य को व्यापक काव्य तत्व के रूप विवेचन किया- 'उचितस्य भाव: औचित्यम्' उचित के भाव को औचित्य कहते हैं, अर्थात् काव्य में प्रत्येक काव्य-तत्व का उचित रूप से प्रयोग औचित्य कहलाता है। उनके कथनानुसार काव्य यधपि रससिध्द होता है, किन्तु उसका स्थिर-अनश्वर-जीवित तो औचित्य ही है- औचित्य रससिध्दस्य स्थिर काव्यस्य जीवितम्। 

क्षेमेन्द्र ने काव्य के विभिन्न अंगों के आधार पर औचित्य के 27 प्रभेद निर्दिष्ट किये जो निम्न तीन वर्गों में विभक्त हो सकते हैं-

1. भाषा- विषयक- पद, वाक्य, क्रिया, कारक, लिंग, वचन, विशेषण, उपसर्ग, निपात और काल।

2. काव्यशास्त्र-विषयक- प्रबन्धार्थ, गुण, अलंकार और रस के अतिरिक्त 'नाम' को परिकर अलंकार और 'अभिप्राय' को 'व्यंग्यार्थ' का पर्याय मानते हुए इन दोनों को भी इसी वर्ग में रख सकते हैं।

3. वर्ण-विषयक- देश, काल, व्रत, तत्व, सत्व, स्वभाव, सारसंग्रह, प्रतिभा, अवस्था, विचार और आशीर्वान।

क्षेमेन्द्र के अनुसार इन सभी अंगों में एकमात्र व्यापक जीवन औचित्य ही है, अर्थात् काव्य में इन सभी काव्य- तत्वों का प्रयोग औचित्य- पूर्ण होना चाहिए। 'काव्यस्यांगेषु च प्राहरौचित्यं व्यापि जीवितम्।। यथा अलंकार और गुण के सम्बन्ध में उनका मन्तव्य है कि जब इनका उचित प्रयोग किया जाएगा तभी ये अलंकार अथवा गुण कहाएंगा, अन्यथा नहीं।

 

निष्कर्ष

इस औचित्य तत्व के कारण ही कालिदास के कुमारसंभव महाकाव्य में शंकर पार्वती के श्रृंगार वर्णन की निंदा की गई है और तुलसी को लिखना पड़ा
जगत मातु पितु शंभु भवानी तेहि श्रृंगार न कहउं बखानी

औचित्य तत्व की अवहेलना के कारण ही केशवदास को हृदयहीन कहा गया। चमत्कार प्रदर्शन में काव्य के औचित्य को भूल गए और वीरह व्यथित राम को उल्लू बना डाला

'वासर की संपत्ति उलूक ज्यों न चितवत'

रीतिकालीन कवि पद्माकर भी औचित्य की अवहेलना कर गए अनुप्रास के चमत्कार में गलती कर बैठे

'कहै पद्मकर परागन में पानन में पीकन पलाशन पंगत है'

इसी प्रकार मैथिलीशरण गुप्त जी साकेत में औचित्य को भूल गए गुप्तजी लिखते हैं कि

सखि नील नभस्सर से उतरा यह हंस अहा तरता-तरता
अब तारक मौक्तिक शेष नहीं निकला जिनको तरता-तरता

यहां पर हंस मोती चुगता है न कि चरता है। इस प्रकार क्षेमेन्द्र ने औचित्य की स्थापना कर उसे काव्य की आत्मा माना। काव्य में उचित ढंग के प्रयोग पर बल दिया।

अन्त में यह समस्या विचारणीय है कि क्या औचित्य को काव्य की आत्मा मानना संगत है, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति और रस क्षेमेन्द्र इनमें से किसी आधार को नहीं अपनाते। यह सभी काव्यांगों को स्वीकार करते हुए केवल उनके औचित्यपूर्ण प्रयोग पर ही बल देने के पक्ष में हैं। अतः औचित्य को काव्य की आत्मा अथवा कोई स्वतन्त्र सिध्दान्त न मानकर इसे सभी काव्य-तत्वों का उत्कर्षक तत्व ही स्वीकार करना चाहिए।

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