30. व्याकरण हिन्दी || 06.03 अलंकार और उसके भेद

30. व्याकरण हिन्दी || 

13. अलंकार और उसके भेद


अलंकार (Alankar)

अलंकार
यहाँ पर 'अलं ' का अर्थ है 'आभूषण' और कर का अर्थ है 'सुसज्जित करने वाला'।
अलंकार के मुख्यतः दो भेद होते हैं :

1. शब्दालंकार
2. अर्थालंकार

शब्दालंकार
शब्दालंकार दो शब्द से मिलकर बना है- शब्द + अलंकार
जब काव्य में, शब्दों के विशेष प्रयोग के द्वारा चमत्कार अर्थात सौंदर्य उत्पन्न किया जाता है, तो वहां शब्दालंकार होता है।
दूसरे शब्दों में जो अलंकार शब्दों के माध्यम से काव्यों को अलंकृत करते हैं, वे शब्दालंकार कहलाते हैं।

(शब्द के दो रूप है- ध्वनि और अर्थ।)

शब्दालंकार के भेद:
1. अनुप्रास अलंकार

2. यमक अलंकार

3. श्लेष अलंकार

 अनुप्रास अलंकार : - अनुप्रास दो शब्दों के मेल से बना है 'अनु + प्रास’, 'अनु' का अर्थ है- अनुशरण या बार-बार तथा 'प्रास' का अर्थ है - वर्ण।

अतः वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते है। जिस रचना में व्यंजन वर्णों की आवृत्ति एक या दो से अधिक बार होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।

(आवृत्ति का अर्थ है-‘किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना’। )

जैसे - 
1. मुदित महीपति मंदिर आए।
2. सेवक सचिव सुमंत बुलाए।
3. तरनी तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
4. अवधि अधार इस आवन की।
5. रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम।
6. चारु चंद्र की चंचल किरणें खेल रही है जल थल में।


यहाँ पहले पद में 'म' वर्ण की आवृत्ति हुई है, अतः यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
यहाँ दूसरे पद में 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है, अतः यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
यहाँ तीसरे पद में 'त' वर्ण की आवृत्ति हुई है, अतः यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

अनुप्रास अलंकार के प्रकार-
छेकानुप्रास अलंकार
वृत्यानुप्रास अलंकार
लाटानुप्रास अलंकार

(अ) छेकानुप्रास अलंकार
काव्य में जहाँ वर्ण स्वरूप एवं क्रम से केवल शब्द के आरम्भ में या अंत में एक बार दुहराया गया हो, वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है। 

उदाहरण -
मैं बैरी सुग्रीव पियारा , कारण कवन नाथ मोहिं मारा।।

यहाँ 'क' वर्ण की आवृति स्वरूप एवं क्रम से सिर्फ एक बार हुई है।

(आ) वृत्यानुप्रास अलंकार
काव्य में जहाँ दो से अधिक बार शब्द के प्रारम्भ में या अंत में वर्णों की आवृति हो वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार होता है।

उदाहरण -
कुलन में केलि में कछारन में कुंजन में ,
क्यारिन में कलिन कलिन किलकंत हैं।।

यहाँ 'क ' वर्ण की आवृत्ति स्वरूप एवं क्रम से अनेक बार हुई है।

 
(इ) लाटानुप्रास अलंकार
जहाँ पर काव्य में पुरे पद की पुनरुक्ति होने पर या थोड़ा परिवर्तन करने पर अर्थ में भिन्न आशय उत्पन्न हो वहां पर लाटानुप्रास अलंकार होता है।

उदाहरण -
पूत कपूत तो का धन - संचय , 
पूत सपूत तो का धन - संचय।।

यहाँ थोड़ा परिवर्तन करने मात्र से ही पूरा अर्थ बदल गया है।

 2. यमक अलंकार
जिस जगह एक ही शब्द एक से अधिक बार प्रयुक्त हो, लेकिन उस शब्द का अर्थ हर बार भिन्न हो, वहाँ यमक अलंकार होता है ।
उदाहरण-
1. कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय। 
    वा खाये बौराय जग या पाये बौराय।।

2. काली घटा का घमण्ड घटा।

3. वह तीन बेर खाती है वह तीन बेर खाती है।

4. कहे कवि बेनी, बेनी ब्याल की चुराय लीनी।

5. तो पर वारी उर्वशी, सुन राधीके सुजान। 
तू मोहन के उरबसी, हवै उरबसी सामान उर्वशी।

इस पद्य में ‘कनक’ शब्द का प्रयोग दो बार हुआ है। प्रथम कनक का अर्थ ‘सोना’ और दूसरे कनक का अर्थ ‘धतूरा’ है। अतः ‘कनक’ शब्द का दो बार प्रयोग और भिन्नार्थ के कारण उक्त पंक्तियों में यमक अलंकार की छटा दिखती है।

यहाँ 'घटा' शब्द की आवृत्ति भिन्न-भिन्न अर्थ में हुई है। पहले 'घटा' शब्द 'वर्षाकाल' में उड़ने वाली 'मेघों' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और दूसरी बार 'घटा' का अर्थ है 'कम हुआ'। अतः यहाँ यमक अलंकार है।

अनुप्रास और यमक अलंकार में समानता 
जिस प्रकार अनुप्रास अलंकार में किसी एक वर्ण की आवृति होती है उसी प्रकार यमक अलंकार में किसी काव्य का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए एक शब्द की बार-बार आवृति होती है।
प्रयोग किए गए शब्द का अर्थ हर बार अलग होता है। शब्द की दो बार आवृति होना वाक्य का यमक अलंकार के अंतर्गत आने के लिए आवश्यक है।

3. श्लेष अलंकार
श्लेष का अर्थ होता है चिपकना या मिला हुआ। जब एक ही शब्द से हमें विभिन्न अर्थ मिलते हों तो वहां श्लेष अलंकार होता है।

यानी जब किसी शब्द का प्रयोग एक बार ही किया जाता है लेकिन उसके अर्थ कई निकलते हैं तो वह श्लेष अलंकार कहलाता है।

उदाहरण -
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै, मोती मानुष चून।।

इस दोहे में रहीम ने पानी को तीन अर्थों में प्रयोग किया है :
पानी का पहला अर्थ मनुष्य की मतलब विनम्रता से है। रहीम कह रहे हैं कि मनुष्य में हमेशा विनम्रता (पानी) होना चाहिए।
पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है। रहीम कहते हैं कि आभा, तेज या चमक के बिना मोती का कोई मूल्य नहीं ।
पानी का तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे अथवा चूने से जोड़कर देखा गया है। 

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रहीम जी का कहना है कि जिस तरह आटे का अस्तित्व पानी के बिना नम्र नहीं हो सकता और मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है, उसी तरह मनुष्य को भी अपने व्यवहार में हमेशा पानी (विनम्रता) रखना चाहिए जिसके बिना उसका मूल्यह्रास होता है। अतः यह उदाहरण श्लेष के अंतर्गत आएगा ।

जे रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारो करै, बढ़े अंघेरो होय।

रहीम जी ने दोहे के द्वारा दीये एवं कुपुत्र के चरित्र को एक जैसा दर्शाने की कोशिश की है। रहीम जी कहते हैं कि शुरू में दोनों ही उजाला करते हैं । लेकिन बढ़ने पर अन्धेरा हो जाता है।

यहाँ बढे शब्द से दो विभिन्न अर्थ निकल रहे हैं। दीपक के सन्दर्भ में बढ़ने का मतलब है बुझ जाना जिससे अन्धेरा हो जाता है। कुपुत्र के सन्दर्भ में बढ़ने से मतलब है बड़ा हो जाना।

बड़े होने पर कुपुत्र कुकर्म करता है जिससे परिवार में अँधेरा छा जात है। यहां एक शब्द से ही दो विभिन्न अर्थ निकल रहे हैं अतः यह उदाहरण श्लेष अलंकार के अंतर्गत आएगा।

3. मंगन को देखे प्रदेश बार-बार है।
(पट् दरवाजा पट् वास्त्र)


अर्थालंकार
जिस अलंकार में अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है, वहाँ अर्थालंकार होता है।
अर्थात जब साहित्य में किसी वाक्य या छंद को अर्थों के आधार पर सजाया जाये तो ऐसे वाक्य या छंद के अलंकार को अर्थालंकार कहते हैं।

अर्थालंकारों के भेदों पर विद्वानों के अलग अलग मत रहे हैं परंतु हम यहां केवल 5 के बारे में जानेंगे।

अर्थालंकार के मुख्यतः पांच भेद हैं -:
1. उपमा
2. रूपक
3. उत्प्रेक्षा
4. अतिश्योक्ति
5. मानवीकरण

1. उपमा अलंकार (उपमा का अर्थ होता है तुलना करना) अर्थात
जब किन्ही दो वस्तुओं के गुण, आकृति, स्वभाव आदि में समानता दिखाने के लिए दो भिन्न वस्तुओं कि तुलना कि जाए, तब वहां उपमा अलंकर होता है।

(ध्यान रहे कि उपमा अलंकार में एक वस्तु या प्राणी कि तुलना दूसरी प्रसिद्ध वस्तु के साथ कि जाती है। )

उदाहरण -
हरि पद कोमल कमल-से। 

यहां हरि के पैरों कि तुलना कमल के फूल से की गयी है अर्थात यहाँ पर हरि के चरणों को कमल के फूल के सामान कोमल बताया गया है। अतः यहां उपमा अलंकार है।

यहाँ पर हरि के चरणों को कमल के फूल के सामान कोमल बताया गया है। यहाँ उपमान (फूल) एवं उपमेय (चरण) में साधारण धर्म कोमलता होने की वजह से तुलना की जा रही है । अतः यह उदाहरण उपमा अलंकार के अंतर्गत आएगा।

मुख चन्द्रमा-सा सुन्दर है।  

पीपर पात सरिस मन डोला।

वह जिंदगी, क्या जिंदगी, जो सिर्फ पानी सी बही।

यह देखिए अरविंद से शिशुवृंद कैसे सो रहे।

ऊपर दिए गए उदाहरण में चेहरे की तुलना चाँद से की गयी है। इस वाक्य में ‘मुख’ – उपमेय है, ‘चन्द्रमा’ – उपमान है, ‘सुन्दर’ – साधारण धर्म  है एवं ‘सा’ – वाचक शब्द है।

उपमा अलंकार के चार अंग होते हैं :

(क) उपमेय, (ख) उपमान, (ग) साधारण धर्म, और (घ) वाचक 

आइए बिन के बारे में जानने का प्रयास करते हैं-

(क) उपमेय : जिस वस्तु या व्यक्ति की उपमा या तुलना की जा रही है वह अपने कहलाता है।

(ख) उपमान : उपमेय की जिस प्रसिद्ध वस्तु से तुलना कि जा रही है वह उपमान कहलाती है।

(ग) साधारण धर्म : साधारण धर्म उपमान ओर उपमेय में समानता उसका साधारण धर्म कहलाता है। 
अर्थात जो गुण उपमान ओर उपमेय दोनों में हो जिससे उन दोनों कि तुलना कि जा रही है वही साधारण धर्म कहलाता है।

(घ) वाचक शब्द : वाचक शब्द वह शब्द होता है जिसके द्वारा उपमान और उपमेय में समानता दिखाई जाती है।

2. रूपक अलंकार
जब गुण की अत्यंत समानता के कारण उपमेय को ही उपमान बता दिया जाए या रूप दे दिया जाए। अर्थात उपमेय ओर उपमान में अभिन्न रूप से एकता दर्शायी जाए तो वहां रूपक अलंकार होता है।

हम इसी इस प्रकार से मिल सकते हैं कि रूपक अलंकार में उपमान और उपमेय में कोई अंतर नहीं दिखायी पड़ता है।

उदाहरण -
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। 

ऊपर दिए गए उदाहरण में राम रतन को ही धन बता दिया गया है। अतः यहां रूपक अलंकार है।

आए महंत वसंत।

चरण कमल बंदों हरि राइ।

मैया मैं तो चंद्र खिलौना ले हों।


3. उत्प्रेक्षा अलंकार
जब समानता होने के कारण मनु, जनु, जनहु, जानो, मानहु, मानो, निश्चय, ईव, ज्यों, जैसे आदि शब्दों के द्वारा उपमेय में उपमान के होने कि कल्पना की जाए या संभावना हो तो वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। 

उदाहरण -
ले चला साथ मैं तुझे कनक। 
ज्यों भिक्षुक लेकर स्वर्ण।

यहां कनक का अर्थ धतुरा है। कवि कहता है कि वह धतूरे को ऐसे ले चला मानो कोई भिक्षु सोना ले जा रहा हो।

काव्यांश में ‘ज्यों’ शब्द का भी प्रयोग हुआ है। अतः यहां उत्प्रेक्षा अलंकार है।

1. मुख मानव चाँद है।

2. सोहत ओढ़े पीत पर, स्याम सलोने गात। 
मनहु नील मनि सैण पर, आतप परयौ प्रभात।। 

3. चमचमात चंचल नयन, बिच घूँघट पट छीन। मनहु सुरसरिता विचल, जल उछरत जुग मीन।।

4. उस काल मारे क्रोध के तनु कॉपने उनका लगा।

5. मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा।।

6. पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के। मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।।

7. पुलक प्रकट करती है धरती हरित तृणों की नोकों से।
मानो झूम रहे हों तरु भी मंद पवन के झौंकों से।।

8. चमचमात चंचल नयन बिच घूँघट पट झीन। मानहु सुरसरिता विमल जल बिछुरत जुग मीन ।।

9. बहुत काली सिल, जरा-से लाल केसर-से कि जैसे धुल गई हो।

10. मनु दृग फारि अनेक जमुन निरखत ब्रज सोभा ।

11. सिर फट गया उसका वहीं मानो अरुण रंग का घड़ा।



4. अतिशयोक्ति अलंकार
जब किसी वस्तु, व्यक्ति आदि का वर्णन बहुत बढ़ा चढ़ा कर किया जाए या अतिशय-उक्ति की जाए, तब वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है। 
इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि इस अलंकार में नामुमकिन तथ्य बोले जाते हैं।

उदाहरण -
1. आगे नदियां पड़ी अपार, घोडा कैसे उतरे पार। 
राणा ने सोचा इस पार, तब तक चेतक था उस पार।

यहां ऐसा वर्णन किया गया है कि महाराणा प्रताप के सोचने की क्रिया ख़त्म होने से पहले ही चेतक ने नदी पार कर दी।

यहां महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की शक्ति का यहां बहुत बढ़ा चढ़ाकर वर्णन यहां बहुत बढ़ा चढ़ाकर वर्णन किया गया है अतः यहां पर अतिशयोक्ति अलंकार है।

2. देख लो साकेत नगरी है यही।
   स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही। 

3. हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आग। 
    लंका सगरी जल गई गए निसाचर भाग।

यहां साकेत रूपी एक नगरी की सुंदरता का वर्णन बहुत ही बढ़ा चढ़कर किया जा रहा है। मानोगे स्वर्गीय के समान सुंदर है। बहुत बढ़ा चढाकर के कारण यहां अतिशयोक्ति अलंकार है।

5. मानवीकरण अलंकार
जब प्राकृतिक वस्तुओं जैसे पेड़,पौधे बादल आदि में मानवीय भावनाओं का वर्णन या उनका मानवीय कर्ण किया जाए अर्थात निर्जीव चीज़ों में भी सजीव होने का भाव दर्शाया जाए तब वहां मानवीकरण अलंकार होता है। 

उदाहरण -
1.  फूल हँसे कलियाँ मुसकाई।

यहां ऐसा वर्णन आ रहा है कि फूल हंस रहे हैं एवं कलियाँ मुस्कुरा रही हैं। 
जैसा की हम जानते हैं की हंसने एवं  मुस्कुराने की क्रियाएं केवल मनुष्य ही कर सकते हैं प्राकृतिक चीज़ें नहीं। अबे यहां मानवीकरण अलंकार है
जब निर्जीव में सजीव भावनाओं का वर्णन चीज़ों में किया जाता है तब यह मानवीकरण अलंकार होता है।

2. मेघ आये बड़े बन-ठन के संवर के। 

यहां मेघ अर्थात बादल मनुष्य की तरह बड़े सज कर और बन ठन कर आये हैं । अतः यहां मानवीकरण अलंकार है।

3. उषा उदास आती है। मुंह पीला ले जाती है।

4. ओ नियति !  तू सुन रही है।

5. दिवसाअवसान के समय 
मेघमय आसमान से उतर रही 
संध्या सुंदरी परी-सी धीरे धीरे।

जिस तरह से एक नारी अपनी सुन्दरता को बढ़ाने के लिए आभूषणों को प्रयोग करती हैं, उसी प्रकार भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया जाता है। अर्थात जो शब्द काव्य की शोभा को बढ़ाते हैं, उसे अलंकार कहते हैं।

अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – अलम + कार। यहाँ पर अलम का अर्थ होता है ‘ आभूषण।’ मानव समाज बहुत ही सौन्दर्योपासक है उसकी प्रवर्ती के कारण ही अलंकारों को जन्म दिया गया है। जिस तरह से  एक नारी अपनी सुन्दरता को बढ़ाने के लिए आभूषणों को प्रयोग में लाती हैं उसी प्रकार भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया जाता है। अथार्त जो शब्द काव्य की शोभा को बढ़ाते हैं उसे अलंकार कहते हैं।

साहित्यों में रस और शब्द की शक्तियों की प्रासंगिकता गद्य और पद्य दोनों में ही की जाती है परंतु कविता में इन दोनों के अलावा भी अलंकार, छंद और बिंब का प्रयोग किया जाता है जो कविता में विशिष्टता लाने का काम करता है हालाँकि पाठ्यक्रम में कविताओं को अपना आधार मानकर ही अलंकार, छंद, बिंब और रस की विवेचना की जाती है।

उदाहरण :-  ‘भूषण बिना न सोहई – कविता, बनिता मित्त।’


अलंकार के प्रयोग का आधार : 

कोई भी कवी कथनीय वास्तु को अच्छी से अच्छी अभिव्यक्ति देने की सोच से अलंकारों को प्रयुक्त करता है जिनके द्वारा वह अपने भावों को उत्कर्ष प्रदान करता है या फिर रूप, गुण या क्रिया का अधिक अनुभव कराता है। कवी के मन का ओज ही अलंकारों का असली कारण होता है। जो व्यक्ति रुचिभेद आएँबर या चमत्कारप्रिय होता है वह व्यक्ति अपने शब्दों में शब्दालंकार का प्रयोग करता है लेकिन जो व्यक्ति भावुक होता है वह व्यक्ति अर्थालंकार का प्रयोग करता है।

अलंकार के भेद

  1. शब्दालंकार
  2. अर्थालंकार
  3. उभयालंकार

1. शब्दालंकार

शब्दालंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – शब्द + अलंकार। शब्द के दो रूप होते हैं – ध्वनी और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। जब अलंकार किसी विशेष शब्द की स्थिति में ही रहे और उस शब्द की जगह पर कोई और पर्यायवाची शब्द के रख देने से उस शब्द का अस्तित्व न रहे उसे शब्दालंकार कहते हैं।

अर्थार्त जिस अलंकार में शब्दों को प्रयोग करने से चमत्कार हो जाता है और उन शब्दों की जगह पर समानार्थी शब्द को रखने से वो चमत्कार समाप्त हो जाये वहाँ शब्दालंकार होता है।

शब्दालंकार के भेद :-

  1. अनुप्रास अलंकार
  2. यमक अलंकार
  3. पुनरुक्ति अलंकार
  4. विप्सा अलंकार
  5. वक्रोक्ति अलंकार
  6. शलेष अलंकार

अनुप्रास अलंकार क्या होता है :-

अनुप्रास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – अनु + प्रास | यहाँ पर अनु का अर्थ है- बार-बार और प्रास का अर्थ होता है – वर्ण। जब किसी वर्ण की बार – बार आवर्ती हो तब जो चमत्कार होता है उसे अनुप्रास अलंकार कहते  है।

जैसे :- जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप।
विश्व बदर इव धृत उदर जोवत सोवत सूप।।

अनुप्रास के भेद :-
  1. छेकानुप्रास अलंकार
  2. वृत्यानुप्रास अलंकार
  3. लाटानुप्रास अलंकार
  4. अन्त्यानुप्रास अलंकार
  5. श्रुत्यानुप्रास अलंकार

1. छेकानुप्रास अलंकार क्या होता है :- जहाँ पर स्वरुप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृति एक बार हो वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है।

जैसे :- रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै।
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।।

2. वृत्यानुप्रास अलंकार क्या होता है :- जब एक व्यंजन की आवर्ती अनेक बार हो वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार कहते हैं।

जैसे :- “चामर-सी, चन्दन – सी, चंद – सी,
चाँदनी चमेली चारु चंद-सुघर है।”

3. लाटानुप्रास अलंकार क्या होता है :- जहाँ शब्द और वाक्यों की आवर्ती हो तथा प्रत्येक जगह पर अर्थ भी वही पर अन्वय करने पर भिन्नता आ जाये वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है। अथार्त जब एक शब्द या वाक्य खंड की आवर्ती उसी अर्थ में हो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है।

जैसे :- तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

4. अन्त्यानुप्रास अलंकार क्या होता है :- जहाँ अंत में तुक मिलती हो वहाँ पर अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है।

जैसे :- “लगा दी किसने आकर आग।
कहाँ था तू संशय के नाग?”

5. श्रुत्यानुप्रास अलंकार क्या होता है :- जहाँ पर कानों को मधुर लगने वाले वर्णों की आवर्ती हो उसे श्रुत्यानुप्रास अलंकार कहते है।

जैसे :- “दिनान्त था, थे दीननाथ डुबते,
सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे।”

2. यमक अलंकार क्या होता है :-

यमक शब्द का अर्थ होता है – दो। जब एक ही शब्द ज्यादा बार प्रयोग हो पर हर बार अर्थ अलग-अलग आये वहाँ पर यमक अलंकार होता है।

जैसे :- कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराए नर, वा पाये बौराये।

3. पुनरुक्ति अलंकार क्या है :-

पुनरुक्ति अलंकार दो शब्दों से  मिलकर  बना है – पुन: +उक्ति। जब कोई शब्द दो बार दोहराया जाता है वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है।

4. विप्सा अलंकार क्या है :-

जब आदर, हर्ष, शोक, विस्मयादिबोधक आदि भावों को प्रभावशाली रूप से व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति को ही विप्सा अलंकार कहते है।

जैसे :- मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधामय।
राधा मन मोहि-मोहि मोहन मयी-मयी।।

5. वक्रोक्ति अलंकार क्या है :-

जहाँ पर वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का श्रोता अलग अर्थ निकाले उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते है।

वक्रोक्ति अलंकार के भेद :-
  1. काकु वक्रोक्ति अलंकार
  2. श्लेष वक्रोक्ति अलंकार

1. काकु वक्रोक्ति अलंकार क्या है :- जब वक्ता के द्वारा बोले गये शब्दों का उसकी कंठ ध्वनी के कारण श्रोता कुछ और अर्थ निकाले वहाँ पर काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है।

जैसे :- मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।

2. श्लेष वक्रोक्ति अलंकार क्या है :- जहाँ पर श्लेष की वजह से वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का अलग अर्थ निकाला जाये वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है।

जैसे :- को तुम हौ इत आये कहाँ घनस्याम हौ तौ कितहूँ बरसो।
चितचोर कहावत है हम तौ तहां जाहुं जहाँ धन सरसों।।

6. श्लेष अलंकार क्या होता है :-

जहाँ पर कोई एक शब्द एक ही बार आये पर उसके अर्थ अलग अलग निकलें वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है।

जैसे :- रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए न उबरै मोती मानस चून।।

अर्थ – यह दोहा रहीम जी का है जिसमें रहीम जी ने पानी को तीन अर्थों में प्रयोग किया है जिसमें पानी का पहला अर्थ आदमी या मनुष्य के संदर्भ में है जिसका मतलब विनम्रता से है क्योंकि मनुष्य में हमेशा विनम्रता होनी चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ चमक या तेज से है जिसके बिना मोतियों का कोई मूल्य नहीं होता है। पानी का तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे को गूथने या जोड़ने में दिखाया गया है क्योंकि पानी के बिना आटे का अस्तित्व नम्र नहीं हो सकता है और मोती का मूल्य उसकी चमक के बिना नहीं हो सकता है उसी तरह से मनुष्य को भी अपने व्यवहार को हमेशा पानी की ही भांति विनम्र रखना चाहिए जिसके बिना उसका मूल्यह्रास होता है।

श्लेष अलंकार के भेद :
  1. अभंग श्लेष अलंकार
  2. सभंग श्लेष अलंकार

1. अभंग श्लेष अलंकार :- जिस अलंकार में शब्दों को बिना तोड़े ही एक से अधिक या अनेक अर्थ निकलते हों वहां पर अभंग श्लेष अलंकार होता है।

जैसे :- रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।।

अर्थ – यह दोहा रहीम जी का है जिसमें रहीम जी ने पानी को तीन अर्थों में प्रयोग किया है जिसमें पानी का पहला अर्थ आदमी या मनुष्य के संदर्भ में है जिसका मतलब विनम्रता से है क्योंकि मनुष्य में हमेशा विनम्रता होनी चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ चमक या तेज से है जिसके बिना मोतियों का कोई मूल्य नहीं होता है। पानी का तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे को गूथने या जोड़ने में दिखाया गया है क्योंकि पानी के बिना आटे का अस्तित्व नम्र नहीं हो सकता है और मोती का मूल्य उसकी चमक के बिना नहीं हो सकता है उसी तरह से मनुष्य को भी अपने व्यवहार को हमेशा पानी की ही भांति विनम्र रखना चाहिए जिसके बिना उसका मूल्यह्रास होता है।

2. सभंग श्लेष अलंकार :- जिस अलंकार में शब्दों को तोडना बहुत अधिक आवश्यक होता है क्योंकि शब्दों को तोड़े बिना उनका अर्थ न निकलता हो वहां पर सभंग श्लेष अलंकार होता है।

जैसे :- सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित।

2. अर्थालंकार क्या होता है

जहाँ पर अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ अर्थालंकार होता है।

अर्थालंकार के भेद

  1. उपमा अलंकार
  2. रूपक अलंकार
  3. उत्प्रेक्षा अलंकार
  4. द्रष्टान्त अलंकार
  5. संदेह अलंकार
  6. अतिश्योक्ति अलंकार
  7. उपमेयोपमा अलंकार
  8. प्रतीप अलंकार
  9. अनन्वय अलंकार
  10. भ्रांतिमान अलंकार
  11. दीपक अलंकार
  12. अपहृति अलंकार
  13. व्यतिरेक अलंकार
  14. विभावना अलंकार
  15. विशेषोक्ति अलंकार
  16. अर्थान्तरन्यास अलंकार
  17. उल्लेख अलंकार
  18. विरोधाभाष अलंकार
  19. असंगति अलंकार
  20. मानवीकरण अलंकार
  21. अन्योक्ति अलंकार
  22. काव्यलिंग अलंकार
  23. स्वभावोती अलंकार

1. उपमा अलंकार क्या होता है :- 

उपमा शब्द का अर्थ होता है – तुलना। जब किसी व्यक्ति या वस्तु की तुलना किसी दूसरे यक्ति या वस्तु से की जाए वहाँ पर उपमा अलंकार होता है।

जैसे :- सागर-सा गंभीर ह्रदय हो,
गिरी-सा ऊँचा हो जिसका मन।

उपमा अलंकार के अंग :-

  1. उपमेय
  2. उपमान
  3. वाचक शब्द
  4. साधारण धर्म

1. उपमेय क्या होता है :- उपमेय का अर्थ होता है – उपमा देने के योग्य। अगर जिस वस्तु की समानता किसी दूसरी वस्तु से की जाये वहाँ पर उपमेय होता है।

2.उपमान क्या होता है :- उपमेय की उपमा जिससे दी जाती है उसे उपमान कहते हैं। अथार्त उपमेय की जिस के साथ समानता बताई जाती है उसे उपमान कहते हैं।

3. वाचक शब्द क्या होता है :- जब उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है तब जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उसे वाचक शब्द कहते हैं।

4. साधारण धर्म क्या होता है :- दो वस्तुओं के बीच समानता दिखाने के लिए जब किसी ऐसे गुण या धर्म की मदद ली जाती है जो दोनों में वर्तमान स्थिति में हो उसी गुण या धर्म को साधारण धर्म कहते हैं।

उपमा अलंकार के भेद :-

  1. पूर्णोपमा अलंकार
  2. लुप्तोपमा अलंकार

1. पूर्णोपमा अलंकार क्या होता है :- इसमें उपमा के सभी अंग होते हैं – उपमेय, उपमान, वाचक शब्द, साधारण धर्म आदि अंग होते हैं वहाँ पर पूर्णोपमा अलंकार होता है।

जैसे :- सागर-सा गंभीर ह्रदय हो,
गिरी-सा ऊँचा हो जिसका मन।

22.लुप्तोपमा अलंकार क्या होता है :- इसमें उपमा के चारों अगों में से यदि एक या दो का या फिर तीन का न होना पाया जाए वहाँ पर लुप्तोपमा अलंकार होता है।

जैसे :- कल्पना सी अतिशय कोमल। जैसा हम देख सकते हैं कि इसमें उपमेय नहीं है तो इसलिए यह लुप्तोपमा का उदहारण है।

2. रूपक अलंकार क्या होता है :- 

जहाँ पर उपमेय और उपमान में कोई अंतर न दिखाई दे वहाँ रूपक अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर उपमेय और उपमान के बीच के भेद को समाप्त करके उसे एक कर दिया जाता है वहाँ पर रूपक अलंकार होता है।

जैसे :- “उदित उदय गिरी मंच पर, रघुवर बाल पतंग।
विगसे संत-सरोज सब, हरषे लोचन भ्रंग।।”

रूपक अलंकार की निम्न बातें :-

  1. उपमेय को उपमान का रूप देना।
  2. वाचक शब्द का लोप होना।
  3. उपमेय का भी साथ में वर्णन होना।

रूपक अलंकार के भेद :-

  1. सम रूपक अलंकार
  2. अधिक रूपक अलंकार
  3. न्यून रूपक अलंकार

1. सम रूपक अलंकार क्या होता है :- इसमें उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है वहाँ पर सम रूपक अलंकार होता है।

जैसे :- बीती विभावरी जागरी. अम्बर – पनघट में डुबा रही, तारघट उषा – नागरी।

2.अधिक रूपक अलंकार क्या होता है :- जहाँ पर उपमेय में उपमान की तुलना में कुछ न्यूनता का बोध होता है वहाँ पर अधिक रूपक अलंकार होता है।

3. न्यून रूपक अलंकार क्या होता है :- इसमें उपमान की तुलना में उपमेय को न्यून दिखाया जाता है वहाँ पर न्यून रूपक अलंकार होता है।

जैसे :- जनम सिन्धु विष बन्धु पुनि, दीन मलिन सकलंक
सिय मुख समता पावकिमि चन्द्र बापुरो रंक।।

3. उत्प्रेक्षा अलंकार क्या होता है :- 

जहाँ पर उपमान के न होने पर उपमेय को ही उपमान मान लिया जाए। अथार्त जहाँ पर अप्रस्तुत को प्रस्तुत मान लिया जाए वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। अगर किसी पंक्ति में मनु, जनु, मेरे जानते, मनहु, मानो, निश्चय, ईव आदि आते हैं वहां पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

जैसे :- सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल
बाहर सोहत मनु पिये, दावानल की ज्वाल।।

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उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद :-

  1. वस्तुप्रेक्षा अलंकार
  2. हेतुप्रेक्षा अलंकार
  3. फलोत्प्रेक्षा अलंकार

1. वस्तुप्रेक्षा अलंकार क्या होता है :- जहाँ पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना दिखाई जाए वहाँ पर वस्तुप्रेक्षा अलंकार होता है।

जैसे :- “सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल।
बाहर लसत मनो पिये, दावानल की ज्वाल।।”

2. हेतुप्रेक्षा अलंकार क्या होता है :- जहाँ अहेतु में हेतु की सम्भावना देखी जाती है। अथार्त वास्तविक कारण को छोडकर अन्य हेतु को मान लिया जाए वहाँ हेतुप्रेक्षा अलंकार होता है।

3. फलोत्प्रेक्षा अलंकार क्या होता है :- इसमें वास्तविक फल के न होने पर भी उसी को फल मान लिया जाता है वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

जैसे :- खंजरीर नहीं लखि परत कुछ दिन साँची बात।
बाल द्रगन सम हीन को करन मनो तप जात।।

4. दृष्टान्त अलंकार क्या होता है :- 

जहाँ दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होता हो वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है। इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती-जुलती बात उपमान रूप में दुसरे वाक्य में होती है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है।

जैसे :- ‘एक म्यान में दो तलवारें, कभी नहीं रह सकती हैं।

किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्या सह सकती है।।

5. संदेह अलंकार क्या होता है :-

जब उपमेय और उपमान में समता देखकर यह निश्चय नहीं हो पाता कि उपमान वास्तव में उपमेय है या नहीं। जब यह दुविधा बनती है , तब संदेह अलंकार होता है अथार्त  जहाँ पर किसी व्यक्ति या वस्तु को देखकर संशय बना रहे वहाँ संदेह अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है।

जैसे :- यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया।

संदेह अलंकार की मुख्य बातें :-

  1. विषय का अनिश्चित ज्ञान।
  2. यह अनिश्चित समानता पर निर्भर हो।
  3. अनिश्चय का चमत्कारपूर्ण वर्णन हो।

6. अतिश्योक्ति अलंकार क्या होता है :- 

जब किसी व्यक्ति या वस्तु का वर्णन करने में लोक समाज की सीमा या मर्यादा टूट जाये उसे अतिश्योक्ति अलंकार कहते हैं अथार्त जब किसी वस्तु का बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाये वहां पर अतिश्योक्ति अलंकार होता है।

जैसे :- हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आगि।
सगरी लंका जल गई, गये निसाचर भागि।

7. उपमेयोपमा अलंकार क्या होता है :- 

इस अलंकार में उपमेय और उपमान को परस्पर उपमान और उपमेय बनाने की कोशिश की जाती है इसमें उपमेय और उपमान की एक दूसरे से उपमा दी जाती है।

जैसे :- तौ मुख सोहत है ससि सो अरु सोहत है ससि तो मुख जैसो।

8. प्रतीप अलंकार क्या होता है :- 

इसका अर्थ होता है उल्टा। उपमा के अंगों में उल्ट – फेर करने से अथार्त उपमेय को उपमान के समान न कहकर उलट कर उपमान को ही उपमेय कहा जाता है वहाँ प्रतीप अलंकार होता है। इस अलंकार में दो वाक्य होते हैं एक उपमेय वाक्य और एक उपमान वाक्य। लेकिन इन दोनों वाक्यों में सदृश्य का साफ कथन नहीं होता, वह व्यंजित रहता है। इन दोनों में साधारण धर्म एक ही होता है परन्तु उसे अलग-अलग ढंग से कहा जाता है।

जैसे :- “नेत्र के समान कमल है।”

9. अनन्वय अलंकार क्या होता है :- 

जब उपमेय की समता में कोई उपमान नहीं आता और कहा जाता है कि उसके समान वही है, तब अनन्वय अलंकार होता है।

जैसे :- “यद्यपि अति आरत – मारत है. भारत के सम भारत है।

10. भ्रांतिमान अलंकार क्या होता है :- 

जब उपमेय में उपमान के होने का भ्रम हो जाये वहाँ पर भ्रांतिमान अलंकार होता है अथार्त जहाँ उपमान और उपमेय दोनों को एक साथ देखने पर उपमान का निश्चयात्मक भ्रम हो जाये मतलब जहाँ एक वस्तु को देखने पर दूसरी वस्तु का भ्रम हो जाए वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी अंग माना जाता है।

जैसे :- पायें महावर देन को नाईन बैठी आय ।
फिरि-फिरि जानि महावरी, एडी भीड़त जाये।।

11.दीपक अलंकार क्या होता है :- 

जहाँ पर प्रस्तुत और अप्रस्तुत का एक ही धर्म स्थापित किया जाता है वहाँ पर दीपक अलंकार होता है।

जैसे :- चंचल निशि उदवस रहें, करत प्रात वसिराज।
अरविंदन में इंदिरा, सुन्दरि नैनन लाज।।

12. अपहृति अलंकार क्या होता है :- 

अपहृति का अर्थ होता है छिपाव। जब किसी सत्य बात या वस्तु को छिपाकर उसके स्थान पर किसी झूठी वस्तु की स्थापना की जाती है वहाँ अपहृति अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है।

जैसे :- “सुनहु नाथ रघुवीर कृपाला,
बन्धु न होय मोर यह काला।”

13. व्यतिरेक अलंकार क्या होता है :- 

व्यतिरेक का शाब्दिक अर्थ होता है आधिक्य। व्यतिरेक में कारण का होना जरुरी है। अत: जहाँ उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो वहाँ पर व्यतिरेक अलंकार होता है।

जैसे :- का सरवरि तेहिं देउं मयंकू। चांद कलंकी वह निकलंकू।।
मुख की समानता चन्द्रमा से कैसे दूँ?

14. विभावना अलंकार क्या होता है :- 

जहाँ पर कारण के न होते हुए भी कार्य का हुआ जाना पाया जाए वहाँ पर विभावना अलंकार होता है।

जैसे :- बिनु पग चलै सुनै बिनु काना।
कर बिनु कर्म करै विधि नाना।
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी।

15.विशेषोक्ति अलंकार क्या होता है :- 

काव्य में जहाँ कार्य सिद्धि के समस्त कारणों के विद्यमान रहते हुए भी कार्य न हो वहाँ पर विशेषोक्ति अलंकार होता है।

जैसे :- नेह न नैनन को कछु, उपजी बड़ी बलाय।
नीर भरे नित-प्रति रहें, तऊ न प्यास बुझाई।।

16.अर्थान्तरन्यास अलंकार क्या होता है :- 

जब किसी सामान्य कथन से विशेष कथन का अथवा विशेष कथन से सामान्य कथन का समर्थन किया जाये वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है।

जैसे :- बड़े न हूजे गुनन बिनु, बिरद बडाई पाए।
कहत धतूरे सों कनक, गहनो गढ़ो न जाए।।

17. उल्लेख अलंकार क्या होता है :- 

जहाँ पर किसी एक वस्तु को अनेक रूपों में ग्रहण किया जाए, तो उसके अलग-अलग भागों में बटने को उल्लेख अलंकार कहते हैं। अथार्त जब किसी एक वस्तु को अनेक प्रकार से बताया जाये वहाँ पर उल्लेख अलंकार होता है।

जैसे :- विन्दु में थीं तुम सिन्धु अनन्त एक सुर में समस्त संगीत।

18. विरोधाभाष अलंकार क्या होता है :- 

जब किसी वस्तु का वर्णन करने पर विरोध न होते हुए भी विरोध का आभाष हो वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है।

जैसे :- ‘आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के।
शून्य हूँ जिसमें बिछे हैं पांवड़े पलकें।’

19. असंगति अलंकार क्या होता है :- 

जहाँ आपतात: विरोध दृष्टिगत होते हुए, कार्य और कारण का वैयाधिकरन्य रणित हो वहाँ पर असंगति अलंकार होता है।

जैसे :- “ह्रदय घाव मेरे पीर रघुवीरै।”

20. मानवीकरण अलंकार क्या होता है :- 

जहाँ पर काव्य में जड़ में चेतन का आरोप होता है वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है अथार्त जहाँ जड़ प्रकृति पर मानवीय भावनाओं और क्रियांओं का आरोप हो वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है। जब प्रकृति के द्वारा निर्मित चीजों में मानवीय भावनाओं के होने का वर्णन किया जाए वहां पर मानवीकरण अलंकार होता है।

जैसे :- बीती विभावरी जागरी, अम्बर पनघट में डुबो रही तास घट उषा नगरी।

21. अन्योक्ति अलंकार क्या होता है :- 

जहाँ पर किसी उक्ति के माध्यम से किसी अन्य को कोई बात कही जाए  वहाँ पर अन्योक्ति अलंकार होता है।

जैसे :- फूलों के आस-पास रहते हैं, फिर भी काँटे उदास रहते हैं।

22. काव्यलिंग अलंकार क्या होता है :- 

जहाँ पर किसी युक्ति से समर्थित की गयी बात को काव्यलिंग अलंकार कहते हैं अथार्त जहाँ पर किसी बात के समर्थन में कोई-न-कोई युक्ति या कारण जरुर दिया जाता है।

जैसे :- कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
उहि खाय बौरात नर, इहि पाए बौराए।।

23. स्वभावोक्ति अलंकार क्या होता है :- 

किसी वस्तु के स्वाभाविक वर्णन को स्वभावोक्ति अलंकार कहते हैं।

जैसे :- सीस मुकुट कटी काछनी, कर मुरली उर माल।
इहि बानिक मो मन बसौ, सदा बिहारीलाल।।

3. उभयालंकार 

जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आधारित रहकर दोनों को चमत्कारी करते हैं वहाँ उभयालंकार होता है।

जैसे :- ‘कजरारी अंखियन में कजरारी न लखाय।’

अलंकारों से सम्बन्धित प्रश्न – उत्तर :-

इन उदाहरणों में कौन-कौन से अलंकार हैं —–

      1. प्रात: नभ था बहुत नीला शंख जैसे।
      2. तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के।
      3. मखमल के झूल पड़े हाथी सा टीला।
      4. मिटा मोदु मन भय मलीने, विधि निधि दिन्ह लेत जनु छीने।
      5. राम नाम कलि काम तरु, राम भगति सुर धेनु।

उत्तर –   (1) उत्प्रेक्षा,  (2) यमक, (3) उपमा,  (4) उत्प्रेक्षा,   (5) रूपक

कुछ प्रश्नों के उत्तर स्वं दें –

      1. अम्बर पनघट में डुबो रही तारा घट उषा नागरी।
      2. वः दीप शिखा सी शांत भाव में लीन।
      3. सिर फट गया उसका मानो अरुण रंग का घड़ा हो।
      4. तब तो बहता समय शिला सा जम जायेगा।
      5. मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर

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